मंगोल हमले से कितनी दूर दिल्ली सल्तनत के अस्तित्व के लिए खतरा बने रहे?

मंगोल दिल्ली सल्तनत के अस्तित्व के लिए खतरा :-

जिस समय भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई उस समय चीन के पास मंगोलिया में मंगोल शासक चंगेज खाँ (1162-1227 ई.) की तूनी बोल रही थी।

मंगोलिया का नगर कराकोरम उसकी राजधानी थी। 1215 ई. तक चंगेज खाँ ने चीन सहित आस-पास के क्षेत्रों को जीत लिया।

उधर मध्य एशिया में नारिज्म का शाह भी चीन को जीतना चाहता था। चंगेज खाँ द्वारा चीन विजय का समाचार पाकर ख्वारिज्म के शाह ने बहाउद्दीन राजी को अपना दूत बनाकर चंगेज खाँ की शक्ति का आकलन करने के लिए चंगेज खाँ के दरबार में भेज ।

दूत का स्वागत करते हुए चंगेज खाँ ने कहा  -“मैं ख्वारिज्म के शाह को पश्चिम का बादशाह मानता हूँ एवं स्वयं को पूर्व का अत: मेरी हार्दिक इच्छा है कि हम लोग शांति से मित्रतापूर्वक रहें। हमारे व्यापारी एक-दूसरे के साम्राज्य में निर्विघ्न रूप से व्यापार करें।”

चंगेज खाँ ने कहा कि वह ख्वारिज्म के शाह को अपने सर्वप्रिय पुत्रों के समान मानना है एवं शांति चाहता है। मगर ख्वारिज्म का शाह चंगेज खाँ की सफलता को देखकर ई की ज्वाला में जल रहा था।

उसने चंगेज खाँ के एक व्यापारिक काफिले के 450 व्यक्त्यिों की हत्या करवा दी। चंगेज खाँ ने धैर्य से काम लिया। चंगेज खाँ ने वार्ता हेतु एक दूत मण्डल भेजा। ख्वारिज्म के शाह ने दूतों से मिलने से इन्कार कर दिया एवं उन्हें काट डालने का हुक्म दिया।

चंगेज खाँ के धैर्य का बाँध टूट गया। उसने ख्वारिज्म के शाह पर 1219 ई. में चढ़ाई कर दी। उसने ख्वारिज्म के शाह के आदमियों को समरकन्द के पास गाजर मूली को तरह काट डाला।

शाह की राजधानी समरकन्द पर चंगेज खाँ ने अधिकार कर लिया। ख्वारिज्म के शाह का पुत्र जलालुद्दीन माँगबनीं भारत की ओर भाग और वहाँ के सुल्तान इल्तुतमिश से शरण माँगी। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत पर मंगोल आक्रमण के खतरे के बादल मँडराना आरम्भ हुये।

इल्तुतमिश की मंगोल नीति – चंगेज खाँ मंगोल के आक्रमण से भयभीत होकर ख्वारिज्म का शाह कैस्पियन तट की ओर भाग गया। ख्वारिज्म का युवराज जलालुद्दीन माँगबर्नी मंगोलों से डरकर भारत की ओर भागा और पंजाब आ पहुँचा।

खोखरों की सहायता से माँगबर्नी ने सिन्ध के शासक नासिरूद्दीन कुबाचा को मार भगाया और सिन्ध क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। उसने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश से मंगोलों के विरुद्ध शरण माँगी।

माँगवर्नी द्वारा शरण माँगे जाने पर इल्तुतमिश धर्म संकट में फंस गया क्योंकि

1. एक शरणागत की रक्षा किसी भी सुल्तान का प्रमुख दायित्व है; एवं शरण न देना शिष्टाचार के विरुद्ध

2. माँगबर्नी को शरण देने का सीधा अर्थ था मंगोल नेता चंगेज खाँ से बैर मोल लेना। आ बैल मुझे मार की कहावत को चरितार्थ करना।

3. इल्तुतमिश जानता था कि मंगोल लोग बौद्ध धर्मावलम्बी होते हुये भी अत्यन्त निर्दयी, क्रूर एवं खतरनाक हैं।

कत्लेआम उनका प्रमुख शौक है। दुश्मनी करने वालों को वे गाजर-मूली की भाँति काट फेंकते हैं।

4. जिस चंगेज खाँ के सामने बड़े-बड़े साम्राज्यों ने घटने टेक दिये, ऐसे में दिल्ली सल्तनत जो कि अभी शैशवावस्था में ही है मंगोलों के प्रकोप का सामना नहीं कर सकती।

उपर्युक्त बातों को विचार में लाकर इल्तुतमिश ने शरणागत की रक्षा से बड़ा दायित्व दिल्ली सल्तनत की रक्षा को माना।

उसने दिल्ली सल्तनत जो कि शैशवावस्था में थी, की क्रूर मंगोलों से रक्षा करना अत्यन्त आवश्यक माना।माँगबनी का पीछा करता हुआ चंगेज खाँ 1220 ई. में सिन्ध तक आ पहुंचा था।

परिस्थितियों की नजाकत को समझते हुये इल्तुतमिश ने दूरदर्शिता की नीति अपनायी। वह स्वयं को मध्य एशिया की राजनीति से अलग रखना चाहता था।

इल्तुतमिश ने माँगबर्नी को कहलवाया कि दिल्ली-लाहौर की जलवायु उसके अनुकूल नहीं है, अत: वह पंजाब छोड़ कर चला जाये। माँगबर्नी ने इसे अपना अपमान समझा और युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ की। मगर बाद में अपनी कमजोर स्थिति को भांपकर वह वापस पर्शिया चला गया।

चंगेज खाँ की इल्तुतमिश से कोई शत्रुता नहीं थी और वह एक तटस्थ राजा की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहता था, अत: वह अफगानिस्तान वापस लौट गया। इस प्रकार इल्तुतमिश ने अपनी दूरदर्शिता पूर्ण नीति से दिल्ली सल्तनत को एक महान् संकट से बचा लिया।

यदि इल्तुतमिश माँगबर्नी को शरण देता तो दिल्ली सल्तनत का मंगोलों के हाथ अन्त निश्चित था परन्तु ऐसी स्थिति में भारत को अवश्य लाभ होता क्योंकि मंगोल बौद्ध थे तथा भारतीय बौद्धों से उनकी समानता थी।

यदि वे भारत आते तो भारतीय बौद्ध धर्म को लाभ मिलता एवं वे भारतीय जनमानस के साथ घुल-मिल जाते। जो भी हो, मंगोलों के सन्दर्भ में इल्तुतमिश की नीति दिल्ली सल्तनत की रक्षार्थ लाभप्रद रही। उसने सल्तनत की मंगोलों से रक्षा की।

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