परागकोष (Pollen sac) में परागकणों (Pollen grains) के परिपक्व हो जाने के बाद परागकोष की भित्ति फट जाती है और नर युग्मक (Male gamete) युक्त परागकण बाहर आ जाते हैं।
अब लैंगिक जनन के लिए यह आवश्यक है कि परागकण मादा युग्मक अर्थात् भ्रूणकोष के अण्ड (Egg) तक पहुँचें।
परागकण सीधे भ्रूणकोष तक न पहुँचकर पहले मादा जननांग के वर्तिकान पर पहुँचते हैं और वहाँ पर ये परागकण अंकुरित(Germinate) होकर इनका नर युग्मक मादा युग्मक तक पहुँचता है। अत: परागकोष से निकलकर, अण्डप में वर्तिकान पर परागकणों के पहुँचने की क्रिया को परागण (Pollination) कहते हैं।
परागण मुख्यतः दो प्रकार का होता है-
1) स्व-परागण (Self-pollination)
2) पर-परागण (Cross-pollination)
1) स्व-परागण (Self-pollination) :-
स्व-परागण एक ही पुष्प के नर व मादा भागों के बीच अथवा उसी पौधे के दो पुष्पों में होता है।
इसके लिए उभयलिंगी पुष्प या द्विलिंगी पौधों का होना आवश्यक है।
स्व-परागण के लिए पुष्पों का रंगीन, चमकदार, बड़ा व आकर्षक होना आवश्यक नहीं है।
इसमें परागकणों का व्यर्थ व्यय कम होता है अतः कम परागकण उत्पन्न होते हैं।
स्व-परागण में बाह्य परागण कर्मकों (Agents) की आवश्यकता नहीं होती है।
स्व-परागण के फलस्वरूप बने बीज हल्के एवं छोटे होते हैं।
बार-बार स्व-परागण से बने पौधे दुर्बल व अस्वस्थ रहते हैं।
इससे पौधों की शुद्धता बनी रहती है।
विभिन्नता एवं विकास की सम्भावना कम रहती है।
स्व-परागित पुष्प अपने पर्यावरण के अनुसार अनुकूलित नहीं होते हैं।
2) पर-परागण (Cross-pollination):-
पर-परागण एक ही जाति के अलग-अलग पौधों के पुष्पों में होता है।
इसके लिए पुष्पों का उभयलिंगी या पौधों का द्विलिंगी होना आवश्यक नहीं है।
पर-परागण के लिए पुष्पों का आकर्षक, सुन्दर, बड़ा व चमकदार होना आवश्यक है।
इसमें परागकणों का व्यर्थ व्यय अधिक होता है।अतः इनका अधिक संख्या में उत्पन्न होना आवश्यक है।
इसमें परागण के लिए जैविक एवं अजैविक कर्मकों की आवश्यकता होती है।
इससे बने बीज अधिक भारी व बड़े होते हैं।
इससे बने पौधे सामान्यतः स्वस्थ रहते हैं।
इसमें दो पौधों का मिश्रण होता है।
विभिन्नता एवं विकास की सम्भावना अधिक रहती है।
पर-परागित पुष्प अपने पर्यावरण के अनुसार अनुकूलित रहते हैं।
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