आदिकाल की राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि :-
आदिकाल या वीरगाथा काल (सन् 1050 से 1375 ई. तक) भारत पर बाहरी आक्रमणों की शुरुआत दसवीं शताब्दी में हो गई थी। ये आक्रमणकारी भारत के सीमान्त राज्यों पर हमला करते और लूटमार करके वापस चले जाते।
बारहवीं शताब्दी तक भारत पर तुकी, अफ़ग़ानी और फारसी योद्धाओं के हमले बहुत तेज़ हो गए थे। 1192 में तराई के दूसरे युद्ध में मुहम्मद गौरी ने दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को हराया और अपने एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को शासन की ज़िम्मेदारी सौंपकर वापस लौट गया।
इसी ऐबक ने भारत में स्थायी मुस्लिम शासन की नींव रखी, जिसे गुलाम वंश या दिल्ली सल्तनत के नाम से जाना जाता है। चौदहवीं शताब्दी तक बाहरी हमलों का दौर धीमा हो गया।
इस कारण राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से नई परम्पराओं की शुरुआत हुई। इन सबका प्रभाव अनिवार्य तौर पर साहित्य के विषयों पर भी हुआ।
हिन्दी साहित्य के पहले कालखण्ड के नाम से हिन्दी की शुरुआती रचनाओं के विषय का पता चलता है। यह समय राजनीतिक रूप से भारत के लिए काफी उलट-फेर का समय था। धन-धान्य और सम्पत्ति के मामले में भारत सदा से ही समृद्ध था।
इस समृद्धि ने पड़ोसी देशों के शासकों को भारत की ओर आकर्षित किया। भारत के उत्तर और पश्चिम के शासकों ने अनेक बार भारत के सीमान्त राज्यों पर आक्रमण किए, उन्हें लूटा और वापस लौट गए। धीरे-धीरे इन आक्रमणों की भीषणता बढ़ती गई।
वर्ष 1026 में महमूद गज़नवी द्वारा सोमनाथ मन्दिर की लूट, 1191 में मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच प्रथम तराइन युद्ध और 1206 में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा दिल्ली में गुलाम वंश की स्थापना जैसी घटनाओं के परिणामस्वरूप भारतीय राजा और प्रजा इनका सामना करने के लिए खुद को तैयार करने लगे।
इन हालातों में कवियों, भाटों और चारणों ने राजाओं, सेनापतियों, सैनिकों आदि की वीरता, बहादुरी, युद्ध कौशल, शक्ति आदि का वर्णन करने वाली अनेक रचनाएँ लिखीं।
इस समय लिखे गए काव्यों में वीरता के वर्णन और प्रशंसा वाली रचनाओं की अधिकता है। इसी आधार पर हिन्दी साहित्य के आदिकाल को वीरगाथा काल का नाम दिया गया।
आदिकाल का काव्य साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट और रसपूर्ण है। इसमें वीर और शृंगार रस की प्रधानता है। वीरता, शक्ति और युद्धकला की प्रशंसा करने वाले इन काव्यों में से ज़्यादातर के नाम के साथ ‘रासो’ शब्द जुड़ा है।
जैसे पृथ्वीराज रासो, खुमाण रासो, हम्मीर रासो, विजयपाल रासो, बीसलदेव रासो, परमाल रासो आदि।
इन ग्रन्थों के पीछे जुड़े ‘रासो’ शब्द के आधार पर इस काल के वीरकाव्यों को ‘रासोकाव्य’ का नाम दिया गया है। अधिकतर रासोकाव्य ‘प्रबन्ध-काव्य’ हैं।
इसका अर्थ है कि इनमें किसी न किसी कथा या घटना का वर्णन हुआ है। इन वर्णनों में आश्रयभूत राजाओं के जीवन, गुणों और विशेषताओं के अलावा प्रयाण और युद्ध का सजीव लेकिन अतिशयोक्तिपूर्ण दृश्य शामिल हैं।
अधिकांश ग्रन्थों में इतिहासबोध से अधिक साहित्यचेतना का ध्यान रखा गया है। यही कारण है कि इन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक नहीं माना जाता।
आदिकाल की साहित्यिक भाषा को भाषा-विज्ञान की दृष्टि से हिन्दी के स्थान पर ‘डिंगल’ और पिंगल का नाम दिया जाता है। इसमें पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के अलावा स्थानीय तौर पर प्रचलित भाषाओं के शब्दों का सुविधानुसार प्रयोग किया गया है।
कहीं-कहीं मैथिली और खड़ीबोली के शब्दों का इस्तेमाल भी पाया जाता है। छन्द की दृष्टि से ‘छप्पय’ इस रचनाकाल का सर्वाधिक प्रयुक्त छन्द है। इसके अलावा दोहा, पहरी, तोमर, नाराच आदि छन्दों का प्रयोग भी पाया जाता है।
इस काल में लिखे गए कुछ रासोकाव्यों के नाम इस प्रकार हैं
चंदबरदाई -पृथिवीराज रासो
दलपतिविजय – खुमाण रासो
सारंगधर – हम्मीर रासो
नरपति नाल्ह – बीसलदेव रासो
जगनिक – परमाल रासो या आल्हखण्ड
इन ग्रन्थों में चंदबरदाई का पृथिवीराज रासो और जगनिक का परमाल रासो अधिक प्रसिद्ध हैं। परमाल रासो को आज भी उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के गाँवों में आल्हा-ऊदल के लोकगीतों के रूप में गाया जाता है।
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