बाहरी ने अपभ्रंश को ‘अपभ्रष्ट’ भाषा नहीं बल्कि ‘आभीरों की भाषा’ मान कर देखा है और राजस्थानी को उसकी जेठी बेटी प्रमाणित करते हुए कहा है कि ‘साहित्यिक भाषा बनने के बाद इसी ने देश के बड़े भाग में मान्यता प्राप्त की और इस नाते इतर प्रदेशों की प्राकृतों को प्रभावित किया, सबसे अधिक शौरसेनी को।’ इसीलिए डॉ. बाहरी अपभ्रंश को हिंदी और प्राकृत के बीच की स्थिति मानने से इनकार करते हुए यह कहते हैं कि ‘अपभ्रंश के जो लक्षण बताए गए हैं वे सब अपभ्रंश के अपने नहीं हैं, अधिकतर शौरसेनी और महाराष्ट्री के हैं, इस आधार पर उनका यह निष्कर्ष है कि ‘अपभ्रंश को ब्रजभाषा और राजस्थानी की पूर्व स्थिति तो माना जा सकता है किंतु उसे सारे हिंदी प्रदेश की बोलियों की जननी नहीं माना जा सकता।’