1857 मैं कांग्रेस पार्टी के निर्माण में जिन परिस्थितियों में भूमिका निभाई गई उनकी व्याख्या कीजिए

एंड्रियूज और मुखर्जी द्वारा संयुक्त रूप से लिखी पुस्तक ‘राइज एंड ग्रोथ आफ दि कांग्रेस इन इंडिया’ के पृ. 128-129 पर लिखा: “1857 के बाद कांग्रेस पार्टी के गठन से ठीक पूर्व के वर्ष बहुत भयावह थे। अंग्रेज अफसरों के बीच ह्यूम ही वह व्यक्ति था जिसने आसन्न तबाही को देखा और इसको रोकने का प्रयास किया। यह समय अखिल भारतीय आन्दोलन के लिए बिल्कुल परिपक्व था। शिक्षित वर्ग का समर्थन प्राप्त कर सकने वाले किसान विद्रोह के स्थान पर कांग्रेस पार्टी ने इन उत्तेजित वर्गों को नये भारत के निर्माण के लिए नया मंच प्रदान किया।” यह कार्य लम्बी अवधि तक हिंसा पर आधारित क्रान्तिकारी परिस्थिति को दोबारा उत्पन्न न होने के लिए किया गया था। ह्यूम द्वारा तैयार किये गये एक मेमोरंडम को उद्धृत करते हुए विलियम वेडर्श्वन ने लिखा: “उस समय के प्रमाणों से हमें यह विश्वास हो गया कि हम लोगों के सामने भयावह विद्रोह का खतरा आसन्न था। मुझे सात बड़े-बड़े वाल्यूम दिखाए गये। इसमें लिखी अनेक रिपोर्ट सबसे निम्नवर्ग के लोगों के साथ संवादों पर आधारित थीं। सभी रिपोर्टों में यही विचार मौजूद था कि वर्तमान परिस्थिति से सभी गरीब लोगों के दिमाग में एक निराशा का विचार व्याप्त है, उनकी सोच है वे भूखों मर जायेंगे, इसलिए वह कुछ न कुछ करना ही चाहते हैं वे एक-दूसरे के साथ मिलकर कुछ करने जा रहे हैं और उनके कुछ करने का मतलब हिंसा है।”

इंडियन नेशनल कांग्रेस का भ्रूण संगठन बन जाने के बाद इसके ब्रिटिश अभिभावकों द्वारा सावधानीपूर्वक इसका लालन-पालन किया गया। गर्भावस्था के काल में इसे आसन्न सशस्त्र क्रान्ति का भूत सताता रहा और प्रसव पीड़ा के बाद ब्रिटिश की ‘नाजायज औलाद’ इंडियन नेशनल कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ। जिस प्रकार ब्रिटिश ने इसको गोद लिया, पाला-पोसा और इसकी देख-रेख की और स्थापित किया, इससे स्पष्ट होता है कि इंडियन नेशनल कांग्रेस का ढाँचा रहस्यमय तरीके से ब्रिटिश सम्बन्धों से बँधा था और “हिंसा पर आधारित क्रान्तिकारी परिस्थिति” जो ब्रिटिश शासन को ध्वस्त कर सकती थी, उसके महीन से महीन तन्तु को वह समाप्त करना चाहती थी। इंडियन नेशनल कांग्रेस अपने जन्म काल से किसानों के क्रान्तिकारी आन्दोलन से विश्वासघात करने के लिए ब्रिटिश शासकों के हाथ में एक उपयोगी उपकरण था। सशस्त्र क्रान्ति से रक्षा के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने इस पर एक कवच के रूप में भरोसा किया और इसने उनकी रक्षा भी की।

इंडियन नेशनल कांग्रेस के लम्बे इतिहास में कभी भी इसका दृष्टिकोण भारतीय नहीं रहा और न ही किसी भी समय इसकी संवेदनाएँ राष्ट्रीय रहीं चाहे इस पर दादाभाई नौरोजी का नेतृत्व रहा हो, गोखले, गाँधी, सी. आर. दास, सुभाषचन्द्र बोस या नेहरू का नेतृत्व रहा हो; कांग्रेस ने हमेशा जनता के संघर्षो में बाधा उत्पन्न करने के लिए साम्राज्यवाद के बारे में भ्रम फैलाया। इसी कार्य के लिए इसको ब्रिटिश अभिभावकों द्वारा भारतीय राजनीति के रंगमच पर लाया गया था।

“भारतीय इतिहास के तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि जो आज शासक वर्गों के ‘चैम्पियन’ होने का दावा करते हैं, उन्होंने भारतीय जनता के हितों के मुकाबले हमेशा साम्राज्यवादियों के हितों को प्राथमिकता दी है। एक तरफ उन्होंने भारतीय जनता को अपने प्रभाव में लाने के लिए साम्राज्यवाद का छद्म विरोध किया और दूसरी तरफ संवैधानिक सुधारों, अहिंसा और शान्तिपूर्ण मार्ग की तकनीक से जनता को क्रान्तिकारी संघर्षों के मार्ग से हटाकर आत्मसमर्पण का मार्ग दिखाया। उन्होंने वास्तविक राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के मुकाबले गुलामी को और किसी भी स्तर पर क्रान्तिकारी भारतीय मुक्ति आन्दोलन को धोखा देने को श्रेष्ठ समझा। ” ( कामरेड आर. बी. सराफ द्वारा लिखी पुस्तक ‘दि इंडियन सोसाइटी’, पृ. 273)

वे इंडियन नेशनल कांग्रेस जैसे एक कठपुतली संगठन को खड़ा कर सन्तुष्ट नहीं हुए और साम्राज्यवादियों ने साम्प्रदायिक और जातीय संगठन बनाने के भव्य विचार पर अमल किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय जनता के विभिन्न तबकों के अन्दर विभाजन करने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासकों द्वारा “एक अन्य पिछलग्गू संगठन, ‘मुसलिम लीग का गठन किया गया। यह संगठन मुसलमान कम्प्राडोर, सामन्तों और पूँजीपतियों का प्रतिनिधित्व करता था। इसके साथ ही साथ 1918 में कांग्रेस द्वारा छल-कपट से एक अन्य संगठन ‘हिन्दू महासभा का गठन किया।”

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा बड़ी सावधानी से इन कठपुतली संगठनों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया गया। इन सभी कठपुतली संगठनों ने एक संगठित सेट के रूप में जनता के खिलाफ भूमिका निभाई।

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