सातवीं-आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक रचे गये हिन्दी साहित्य को ‘आदिकाल’ अथवा ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया गया है। इस काल में युद्धों का उन्माद फैला हुआ था। मुसलमानों के निरन्तर आक्रमणों से चारों ओर अशान्ति फैली हुई थी। अत: साहित्य में या तो वीरता, शौर्य, पराक्रम के स्वर प्रबल थे या फिर वैराग्य के। इस काल में हिन्दी, अपभ्रंश से अलग स्वरूप धारण करने के प्रयास में थी और हिन्दी भाषा का स्वरूप भी स्थिर नहीं हो सका था। मोटे तौर पर 1000 ई. से 1350 ई. तक का समय आदिकाल (वीरगाथा) कहा जाता है।
आदिकाल के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-वीरगाथा काल का समय सांस्कृतिक और धार्मिक सभी दृष्टियों से अत्यन्त उथल-पुथल का रहा है। इस काल में जहाँ एक ओर जैन, नाथ और सिद्ध साहित्य का निर्माण होता रहा, वहीं दूसरी ओर राजस्थान के चारण कवि भी अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में चरित काव्यों की रचना करते रहे।
संक्षेप में, इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ निम्न प्रकार बताई जा सकती हैं
(1) कल्पना का प्राचुर्य- वीरगाथा काल की रचनाओं में इतिहास और कल्पना का पर्याप्त समन्वय दृष्टिगोचर होता है। इस युग की रचनाओं के नायक तो इतिहास प्रसिद्ध पात्र हैं, लेकिन उनके काल, तिथियाँ एवं घटनाएँ इतिहास से मेल कम खाती हैं। इस प्रकार इन काव्यों में इतिहास की अपेक्षा कल्पना का समावेश अधिक है। कवि द्वारा घटनाओं की कल्पना कर लेने से इनमें ऐतिहासिक तथ्य ही उपलब्ध होते हैं।
(2) आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा– वीरगाथा काल के कवियों ने अपने आश्रयदाता-राजाओं और सामन्तों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। इन चारण कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं को राम, कृष्ण आदि से श्रेष्ठ एवं महान घोषित किया है। इन कवियों ने इतिहास को अतिशयोक्ति के ऊपर न्यौछावर कर दिया है। उदाहरण के लिए ‘पृथ्वीराज रासो’ ने पृथ्वीराज चौहान को उन सभी राजाओं का विजेता बताया है, जो उसके शासनकाल के पूर्व ही मर चुके थे। राजाओं के सौन्दर्य, यश, वीरता, धन-वैभव का वर्णन अत्युक्ति के साथ इन कवियों ने किया है।
(3) अप्रामाणिक रचनाओं की अधिकता- वीरगाथा काल की अधिकांश रचनाओं को उनके काल, सम्वत् एवं घटनाओं की अशुद्धि के कारण अप्रामाणिक माना गया है। इस काल के पृथ्वीराज रासो, खुमान रासो, वीसलदेव रासो और परमाल रासो आदि काव्यों के काल, सम्वत् और घटनाएँ अपने समकालीन इतिहास के काल, सम्वत् और घटनाओं से मेल नहीं खाती हैं। इसके अतिरिक्त निरन्तर विषय एवं भाषा सम्बन्धी परिवर्तन एवं परिवर्द्धन होने के कारण इन ग्रन्थों के मूल रूप को पहचानना भी कठिन हो गया है।
(4) युद्धों का सजीव वर्णन- इस काल के कवियों की प्रमुख प्रवृत्ति युद्धों का सजीव वर्णन करने की रही है। वे कलम के साथ तलवार के भी धनी थे। युद्धों में वे अपने आश्रयदाताओं के साथ रहकर उनमें पराक्रम
और शौर्य भरते थे तथा स्वयं भी युद्धों में भाग लेते थे, अत: उनके द्वारा किया गया युद्धों का वर्णन अत्यन्त मूर्तिमान एवं बिम्बग्राही बन पड़ा है। उसमें योद्धाओं की मनोदशाओं तथा भावनाओं के सुन्दर चित्र हैं।
(5) नारी वर्णन- वीरगाथा काल के कवियों ने नारी और उसके अंग-प्रत्यंगों के सौन्दर्य का विस्तृत वर्णन किया है। चारण-कवि आश्रयदाताओं का मनोरंजन करने के लिए नारी के नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन किया करते थे। इस युग में युद्धों का एक प्रमुख कारण नारी भी रही है। इस युग के कवियों ने युद्धों के लिए किसी सुन्दर नारी की कल्पना कर ली थी, जिसकी प्राप्ति के लिए एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करता था। बस, यही नारी उस समय के युद्धों का मूल कारण बन गई थी तथा कवियों को शृंगार रस का वर्णन करने का अवसर भी मिल गया।
(6) रासो ग्रन्थों की रचना- वीरगाथा काल के सभी ग्रन्थों के साथ रासो’ शब्द जुड़ा हुआ है; जैसे-पृथ्वीराज रासो, वीसलदेव रासो, खुमान रासो और परमाल रासो आदि। अनेक विद्वानों में रासो’ शब्द के सम्बन्ध में अपने अलग-अलग मत दिये हैं। कुछ विद्वानों ने रहस्य, रसायण आदि से ‘रासो’ शब्द की उत्पत्ति मानी है, जो सर्वथा भ्रामक है। रासो शब्द मूलतः रासक का पर्याय है जो एक छन्द भी है तथा चरित काव्य भी। कुछ समय पश्चात् इसका प्रयोग गेय रूपक के अर्थ में होने लगा। कालान्तर में वीर रसयुक्त रचनाएँ रासक छन्द में लिखी जाने लगी और ऐसे काव्यों को ‘रासो’ काव्य कहा जाने लगा।
(7) वीर और श्रृंगार रसों की प्रमुखता- इस काल की रचनाओं में वीर और शृंगार रसों का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है। इस काल में वीर रस का जैसा सुन्दर वर्णन मिलता है। वैसा परवर्ती कालों में नहीं मिलता। कारण यह है कि इस युग में युद्धों का प्रचलन था। अबाल-वृद्ध सभी में युद्धों के प्रति उत्साह था। इन युद्धों का मूल कारण नारी थी, जिसके कल्पित रूप के माध्यम से इन कवियों ने श्रृंगार रस का वर्णन किया है। शृंगार रस के वर्णन में इन कवियों ने षट्ऋतु वर्णन, नख-शिख वर्णन आदि परम्परा रूप में ही किये हैं। वीर रस के वर्णन में इस काल के कवि सर्वाधिक कुशल कहे जा सकते हैं।
(8) प्रबन्ध और मुक्तक में रचना- इस काल के कवियों ने प्रबन्ध और मुक्तक दोनों प्रकार की काव्य-शैलियों को अपनाया है। प्रबन्ध काव्य की दृष्टि से ‘पृथ्वीराज रासो’ और मुक्तक काव्य की दृष्टि से ‘वीसलदेव रासो’ इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। काव्य की अन्य शैलियों का प्रचलन इस युग में नहीं हो पाया था।
(9) विविध छन्दों का प्रयोग- इस युग की कविता में छन्दों का विविध रूप में प्रयोग मिलता है। इस काल के कवियों ने दोहा, तोमर, तोटक, गाथा गाहा, पद्धति, आर्या, रोला, उल्लाला, छप्पय, कुण्डलियाँ सटक आदि छन्दों का सुन्दर प्रयोग किया है। इस युग का छन्द विधान चमत्कार प्रदर्शन के लिए न होकर भावों को उद्दीप्त करने वाला ही अधिक है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है-“रासो के छन्द जब बदलते हैं तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल कम्पन उत्पन्न करते हैं।” चन्दबरदाई को छन्दों का सम्राट् कहा जाता है।
(10) भाषा- इस युग की कविता में मूलतः साहित्यिक अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी भाषा अथवा डिंगल भाषा का प्रयोग मिलता है। यह भाषा वीर रस प्रधान भाषा है, जिसे चारण लोग गा-गाकर पढ़ते थे। इसके अतिरिक्त इस युग का भाषा अपभ्रंश मिश्रित साहित्यिक ब्रजभाषा या पिंगल के नाम से भी पुकारी जाती है। इस युग की भाषा में अरबी, फारसी और संस्कृत के शब्दों का भी खुलकर प्रयोग हुआ है। इस प्रकार डिंगल और पिंगल ही उस काल की मुख्य भाषाएँ रही हैं।
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