रस का स्वरूप :-
“सत्त्वोद्रेकादखण्डस्वप्रकाशानंदचिन्मयः
वेद्यान्तरस्पर्शशून्यः ब्रहमानंदसहोदरः।
लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चिद् प्रभातृभिः।
स्वाकारवद भिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः।।”
यहाँ ‘सत्त्वोद्रेकाद’ इस पद से हेतु का निर्देश किया गया है |
और ‘खण्डस्वप्रकाशानंदचिन्मयः’ ‘वेद्यान्तरस्पर्शशून्यः ब्रहमानंदसहोदरः’ ‘लोकोत्तरचमत्कारप्राणः’ इन पदों से रस का स्वरूप बतलाया गया है।
एवं ‘स्वाकारवद भिन्नत्वेनाय’ इससे उसके स्वाद का प्रकार और ‘कैश्चिद् प्रभातृभिः’ से रसास्वाद के अधिकारियों का निर्देश किया गया है।
“अन्तःकरण में रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण के सुन्दर स्वच्छ प्रकाश होने से रस का साक्षात्कार होता है।अखण्ड, अद्वितीय, स्वयं प्रकाशस्वरूप आनंदमय और चिन्मय ( चमत्कारमय ) यह रस का स्वरूप ( लक्षण ) है । रस के साक्षात्कार के समय दूसरे वेद्य (विषय ) का स्पर्श तक नहीं होता । रसास्वाद के समय विषयान्तर का ज्ञान पास तक नहीं फटकने पाता, अतएव यह ब्रह्मास्वाद (समाधि) के समान होता है। जिसमें आनन्द अस्मिता आदि आलम्बन रहते हैं। निरालम्बन निर्वितर्क समाधि की समता इसमें नहीं है। क्योंकि रसास्वाद में विभावादि आलम्बन रहते हैं”
रस सिद्धांत का इतिहास काल :-रस-सिद्धांत की आधार-शिला भरत मुनि ने रखी। उनसे पूर्व भी यह सिद्धांत प्रचलित रहा होगा, इसमें कोई संदेह नहीं, किंतु उसका कोई प्रमाण नहीं मिलता, अतः भरतमुनि ही रस-सिद्धांत के प्रारम्भकर्ता कहे जा सकते हैं।
इसके बाद रस-सिद्धांत का इतिहास चार युगों में विभाजित किया जा सकता है:-
(1) पूर्वमध्य युग-ध्वनिपूर्वकाल इस युग में कालक्रमानुसार, अलंकारवादी और रसवादी दो श्रेणियों के आचार्य मिलते हैं, जिन्होंने किसी न किसी रूप में रस पर विचार किया है।
प्रमुख आचार्य और रस के संबंध में उनकी दृष्टि
(अ) अलंकारवादी
1. भामह-भामह ने रस को प्रेयस्, रसवत्, ऊर्जस्वी अलंकारों के अंतर्गत माना। वे काव्य में रस को गौण मानते हैं।
2. दण्डी-दण्डी भी रस को अलंकार और गुण के अंतर्गत मानते हैं।
3. वामन (रीतिवादी आचार्य)-वामन ने कांति गुण के अंतर्गत रस की स्वीकृति दी।
4. उद्भट-भामह की तरह उद्भट्ट ने भी रस को रसवत्, प्रेयस्, ऊर्जस्वी अलंकारों के अंतर्गत समाहित करते हुए अतिरिक्त समाहित अलंकार के अंदर भी रस को मान कर व्यापक धरातल प्रदान किया।
5. रुद्रट-अलंकारवादी आचार्यों में रुद्रट पहले आचार्य हैं जिन्होंने रस का विवेचन स्वतंत्र रूप से किया और कहा कि रस ही काव्य की श्रेष्ठ वस्तु है।
(ब) रसवादी
1. भट्टलोल्लट-भरतमुनि के रस प्रकरण की प्रथम व्याख्या लोल्लट ने की। रसनिष्पत्ति के संबंध में उत्पत्तिवाद या आरोपवाद एक नया मत भी दिया।
2. शंकुक-रसवादी शंकुक रसविषयक भरत-सूत्र के दूसरे आचार्य हैं। उनका मत ‘अनुमितिवाद’ के रूप में प्रसिद्ध है।
3. रुद्रभट्ट-रुद्रभट्ट काव्य में रस की सत्ता अनिवार्य मानते हैं, उनका कथन है कि रस का अभाव काव्य में उसी प्रकार अशोभनीय है जैसे चंद्र के बिना रात्रि।
(2) मध्ययुग-ध्वनिकाल :-
इस युग में चार प्रकार की दृष्टियों वाले आचार्य हुए-एक तो विशुद्धतः रसवादी, एक आचार्य वर्ग ऐसी भी था जो अप्रत्यक्षरूप से रस को स्वीकार करता था, किंतु अपने अलग-अलग संप्रदाय स्थापित करने के कारण ये आचार्य अलग रहे, तीसरा वर्ग ऐसा था जो स्वतंत्र रूप से अपने विचार या सिद्धांत का प्रतिपादक रहा-रस को उसने स्वीकार नहीं किया। चौथे एक आचार्य समन्वयवादी थे।
प्रमुख आचार्य और रस के संबंध में उनकी दृष्टि:-
(अ) प्रथमवर्ग- विशुद्ध रसवादी:-भट्टनायक के ‘साधारणीकरण का सिद्धांत’ और रसनिष्पत्ति के संबंध में ‘भुक्तिवाद’ नाम से प्रसिद्ध अभिमत रस के क्षेत्र में नई उपलब्धियाँ हैं।
भट्टतौत और महिमभट्ट काव्य के आवश्यक तत्त्व के रूप में रस का समर्थन करते है।
अभिनव गुप्त तो रस के मौलिक और मनोवैज्ञानिक व्याख्याकार हैं।
राजशेखर व धनंजय-धनिक भी विशुद्ध रसवादी आचार्य थे। राजशेखर ने तो रस को काव्य की आत्मा कहा है।
(ब) द्वितीय वर्ग- अप्रत्यक्ष रूप से रसवादी इस वर्ग में ध्वनि सम्प्रदाय के उन्नायक आनंदर्धन, औचित्य सिद्धांत के पुरस्कर्ता क्षेमेन्द्र आते हैं।
आनंदवर्धन ने ध्वनि के माध्यम से रस की वैज्ञानिक प्रक्रिया प्रस्तुत की। उनका अभिमत है कि रस-ध्वनिकाव्य ही श्रेष्ठ काव्य है। रस को वे ध्वनि का एक भेद-असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि मानते हैं।
औचित्यवादी क्षेमेन्द्र औचित्य को आत्मस्थानीय मानते हैं। किंतु काव्य में रस की आवश्यकता से इन्कार नहीं कर सके। रस का नाम उन्होंने बार-बार लिया है।
(स) तृतीय वर्ग- स्वतंत्र विचारक इस वर्ग के अंतर्गत आचार्य कुन्तक का ही नाम लिया जा सकता है। वक्रोक्ति-सिद्धांत के प्रतिपादक आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का ‘जीवन’ स्वीकार करते हुए भी रस को काव्य का अमृत एवं अंतश्चमत्कार का वितानक मानते हुए प्रकारांतर से इसे सर्वप्रमुख काव्य-प्रयोजन के रूप घोषित किया है। यत्र-तत्र रस की महत्त्वपूर्णता के साथ उन्होंने चर्चा की है। वे सभी अलंकारों का प्राण रस को मानते हैं।
(द) चतुर्थवर्ग- समन्वयवादी आचार्य इस काल में भोज समन्वयवादी आचार्य के रूप में दिखाई देते हैं। वे काव्य में दोषों का अभाव, गुणों का सद्भाव, अलंकार एवं रस सभी को अनिवार्य मानते हैं।
(3) उत्तरमध्य युग- ध्वनिपरवर्ती युग इस काल-सीमा में रसवादी, अलंकारवादी और ध्वनिवादी तीनों तरह के आचार्य थे। मम्मट, हेमचन्द्र, विद्याधर, पंडितराज जगन्नाथ ध्वनिवादी थे, किंतु वे भी रस की आवश्यकता को भुला नहीं सके। मम्मट ने तो रस को काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन निर्दिष्ट किया। रुय्यक, जयदेव, अप्पयदीक्षित में भी देखें-रुय्यक रस को असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य मानते हैं। ध्वनि के सापेक्षिक महत्त्व को स्वीकार करते हैं। वे रस को ध्वनि के अंतर्गत स्वीकार करते हुए ध्वनि की विशेषता के समर्थक हैं।
इसी तरह अग्निपुराण के रचयिता, रामचन्द्र-गुणचन्द्र, विश्वनाथ, शारदातनय, शिंग भूपाल, भानुदत्त, रूप गोस्वामी-सभी ने रस को किसी न किसी रूप में मान्यता दी है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र के ‘नाट्यदर्पण’ में स्वाभाविक रूप से रस की सत्ता सर्वोच्च है। वे कहते हैं कि रसामृत ही कवि को श्रेष्ठपद देता है। शारदातनय के ‘भाव-प्रकाशन’ में भी रस का समर्थन है। भानुदत्त अपने ग्रंथ ‘रसतरंगिणी’ और ‘रसमंजरी’ में रस की व्याख्या करते हैं, अन्य काव्य तत्त्वों को गौण मान कर छोड़ दिया गया है।
चौदहवीं शताब्दी में विश्वनाथ का उदय रस को काव्यात्मा के रूप में स्थापित करने के लिए वरदान सिद्ध हुआ। काव्य में रस के होने से अन्य तत्त्व उसमें स्वयं ही आ जाते हैं, यह उनकी मान्यता थी।
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