भारत में परमाणुओं की सत्ता मानने वाले तो बहुत-से दार्शनिक हैं, किन्तु परमाणुओं द्वारा ही सम्पूर्ण संसार की व्याख्या परमाणुवादी न्याय-वैशेषिक की विशेषता है।
इसी कारण ही सिर्फ यह मत वैज्ञानिक कहा जाता है। यह तो सर्वविदित है कि परमाणुवाद विज्ञान का सिद्धान्त है। वैज्ञानिक अतीन्द्रिय ईश्वर को ही जगत् का कारण नहीं मानते।
वे परमाणुओं को ही जगत् का कारण मानते हैं। अन्य तथ्य यह है कि ज्यादातर वैज्ञानिक सृष्टिवाद के स्थान पर विकासवाद को मानते हैं। विश्व का स्वरूप विकास का परिणाम है। न्याय-वैशेषिक का परमाणुवाद परमाणुओं को तो संसार का कारण मानता है, साथ ही यह भी मानता है कि द्वयणुक, त्रयणुक चतुणुक आदि क्रम से जगत् के हर एक वस्तुओं का विकास होता है।
अतएव इन बातों में समानता जरूर है। किन्तु सबसे बड़ी विषमता ईश्वर को लेकर है। वैशेषिक का परमाणुवाद ईश्वर की इच्छा से परमाणुओं में क्रिया की उत्पत्ति मानता है। इससे ही सृष्टि आरम्भ होती है । अन्त में ईश्वर की इच्छा से ही परमाणुओं में वियोग भी स्वीकार करता है। यह प्रलय है। अतएव सृष्टि तथा प्रलय दोनों ईश्वर की इच्छा के अधीन हैं। यह विज्ञान को मान्य नहीं ।
न्याय-वैशेषिक के परमाणुवाद की सबसे बड़ी विशेषता ईश्वरवाद तथा अनीश्वरवाद का समन्वय है। ईश्वरवादी वैदिक दर्शनों के अन्तर्गत जगत् की सृष्टि ईश्वर की इच्छामात्र मानी गयी है। वेद में कहा गया है- सो अकामयत् अर्थात उसने (ईश्वर ने) सृष्टि की इच्छा की तथा सृष्टि हो गयी।
जबकि अनीश्वरवादी अवैदिक दर्शनों में भौतिक तत्वों को ही भौतिक जगत् का कारण स्वीकार किया गया है। चार्वाक दर्शन के अन्तर्गत पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि को जगत् का विकास माना गया है।
परमाणुवादी इन चार भौतिक तत्वों को नित्य (परमाणु रूप) तथा अनित्य (वस्तुरूप) को मानते हैं, सृष्टि तथा प्रलय दोनों महेश्वर की इच्छा के अधीन मानते हैं। अतएव परमाणुवाद ईश्वरवाद तथा अनीश्वरवाद का समन्वय करता है।
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