काव्य में अलंकार का स्थान व महत्व –
अलंकार काव्य के लिए बहुत उपयोगी हैं। अलंकारों के प्रयोग से काव्य की रोचकता बढ़ जाती है। वह आकर्षक और प्रभावशाली हो जाता है।
इस प्रकार अलंकारों की उपयोगिता असंदिग्ध है। अलंकार भाषा का महत्त्वपूर्ण अंग है। साधारण व्यक्ति भी अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए अलंकारों का अनायास ही प्रयोग करते हैं।
इसमें यह ध्यातव्य है कि अलंकार काव्य के लिए तभी उपयोगी होते हैं जब उनका प्रयोग सुरुचि के साथ किया जाए और उनकी ‘अति’ न की जाए।
अलंकार साधन हैं, साध्य नहीं। जब वे साधन के स्थान पर साध्य बन जाते हैं तब काव्य की शोभा बढ़ाने के स्थान पर उनका रूप विद्रूप कर देते हैं।
अनुप्रास अलंकार व उसके भेद
अनुप्रास–जहाँ पर वणों की आवृत्ति हो, अनुप्रास अलंकार होता है (आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है) जैसे
मुदित, महीपति मन्दिर आये। सेवक सचिव सुर्मत बुलाए।
इस चौपाई में पहले पद में म की और दूसरे में स की तीन-तीन बार आवृत्ति हुई है।
अनुप्रास के पाँच भेद हैं
(क) छेकानुप्रास–जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है। इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। ‘रस’ और ‘सर’ में छेकानुप्रास नहीं है। ‘सर-सर’ में वणों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतः यहाँ छेकानुप्रास है। जैसे
बंदउँ गुरू पद पदुम परागा। सुरुचि सुवास सरस अनुरागा॥
इस चौपाई में—’पद’ ‘पद्म’ में प, द और ‘सुरुचि’ ‘सरस’ में स, र की स्वरूपतः और क्रमशः एक बार आवृत्ति है, अतः छेकानुप्रास है।
(ख) वृत्त्यनुप्रास- जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ पर वृत्त्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्ण विन्यास को वृत्ति कहते हैं
जैसे(1) “तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बह छाये”
यहां पर ‘त’ वर्ण की आवृत्ति कई बार हुई है।
(2) “सपने सुनहले मन भाये“
यहाँ पर ‘स’ वर्ण की आवृत्ति दो बार हुई है।
(3) “सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसह जाहि निरन्तर गावैं।”
यहाँ पर ‘स’ वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।
(ग) लाटानुप्रास—जब एक शब्द या वाक्य खण्ड की आवृत्ति | उसी अर्थ में हो, किन्तु तात्पर्य अथवा अन्वय में भेद हो, तो वहाँ लाटानुप्रास होता है।
यह यमक का ठीक उल्टा होता है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न | होकर आशय मात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है। जैसे
“पीय निकट जाके, नहीं घाम, चांदनी ताहि।
पीय निकट जाके नहीं, घाम चांदनी ताहि॥”
यद्यपि उक्त दोनों पंक्तियां एक सी है किन्तु अन्वय करने पर उनके | अर्थ में भिन्नता आ जाती हैं।
“वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे “
यहां पर मनुष्य शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है किन्तु दोनों का आशय “आदमी” है किन्तु अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दुसरा सम्प्रदान।
(घ) श्रुत्यानुप्रास—जब एक ही स्थान से उच्चारित होने वाले | वर्गों की आवृत्ति हो तो वहाँ पर श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है।
जैसे- मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।।
यहाँ पर मेरी भव बाधा में ‘म’ ‘भ’, ‘ब’ एक ही स्थान ओठ से | बोले जाने वाले हैं।
(च) अन्त्यानुप्रास-छंद के चरणांत में वर्गों की साम्यता होने पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है।
जैस – बिन सत्संग विवेक न होई। रामकृपा बिन सुलभ न सोई।।
यहां चरणांत के ‘होई’ और ‘सोई’ में ‘ई’ की समानता है।