लेखक ने घड़ी तथा धर्म की तुलना की है। उसने ‘घड़ी के पुर्जे ‘ का दृष्टांत धर्म के रहस्य के रूप में दिया है। जिस प्रकार कुछ प्रशिक्षित लोग ही धर्म के रहस्यों पर अपना अधिकार मानते हैं और समाज के अधिकांश लोगों को गूढ़ रहस्य दूर रखने का प्रयास करते हैं, उसी प्रकार सामान्य मनुष्य घड़ी देखने के बाद उसकी मरम्मत की आवश्यकता को नजरअंदाज करता है, उसे वह ‘घड़ीसाज’ का काम मानता है। लेखक का मानना है कि हमें केवल घड़ी देखना ही नहीं आना चाहिए बल्कि उसे खोलकर ठीक करने का तरीका भी जानना चाहिए। यदि हम धर्म के बाह्य तत्त्वों तथा धर्माचार्यों के उपदेशों को आँख बंद कर मानते रहे तो हमारा भला नहीं होगा, इस के लिए हमें ‘धर्म के रहस्य’ अर्थात् ‘घड़ी के पुर्जों’ की भी जानकारी होनी चाहिए। धर्माचार्यों द्वारा बताए गए धर्म के मार्ग पर आँख मूँदकर नहीं चलना चाहिए। स्वयं भी उस पर विचार करना चाहिए।