कविता पढ़ने और नाटक देखने से पाठक और श्रोता को जिस आनन्द की अनुभूति होती है वही रस है। वास्तव में सहृदय जनों के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से व्यक्त होकर रस कहलाता है।
रस के भेद:- प्राचीन आचार्यों ने रसों की संख्या 9 मानी थी, किन्तु आधुनिक विद्वानों ने वात्सल्य और भक्ति रस को भी सम्मिलित करते हुए इनकी संख्या 11 निर्धारित की है।
रस और उनके स्थायी भाव निम्नलिखित हैं :-
1. श्रृंगार रस- रति
2. करुण रस- शोक
3. शान्त रस- निर्वेद
4. रौद्र रस – क्रोध
5. वीर रस – उत्साह
6. हास्य रस – हास्य
7. भयानक रस – भय
8. वीभत्स रस – घृणा
9. अद्भुत रस – विस्मय
10. वात्सल्य रस – वत्सलता
11. भक्ति रस – देव के प्रति भक्ति भाव
शृंगार रस :- ‘शृंगार रस’ को ‘रसराज’ कहा गया है। जहाँ रति नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से आस्वाद योग्य हो जाता है, वहाँ शृंगार रस की निष्पत्ति होती है।
शृंगार रस के दो भेद हैं :- (1) संयोग शृंगार, तथा (2) वियोग अथवा विप्रलम्भ शृंगार।
(1) संयोग शृंगार:- जहाँ नायक और नायिका के मिलन का वर्णन हो वहाँ संयोग शृंगार होता है।
उदाहरण: दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माँही।
गावति गीति सबै मिलि सुन्दरि, वेद जुआ जुरि विप्र पढ़ाहीं।।
रामको रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।
याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाहीं।। (तुलसीदास)
स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में रति स्थायी भाव है, राम आलम्बन हैं, सीता आश्रय हैं। गाये जाने वाले वैवाहिक गीत एवं कंगन में जड़े हुए नग में पड़ने वाला राम का प्रतिबिम्ब उद्दीपन है। सीता का राम के प्रतिबिम्ब को देखना तथा हाथ न हिलाना, अनुभाव है। जड़ता, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। अस्तु, यहाँ पर संयोग शृंगार रस है।
(2) वियोग श्रृंगार:- जहाँ नायक और नायिका की वियोगावस्था का वर्णन हो वहाँ वियोग शृंगार होता है। इसे विप्रलम्भ श्रृंगार के नाम से भी जाना जाता है।
उदाहरण:- भूषण वसन विलोकत सिय के।।
प्रेम विवस मन कम्प, पुलक तनु नीरज नयन नीर भरे पिय के।
सकुचत कहत सुमिरि उर उमगत, सील सनेह सगुण गुण तिय के।
स्पष्टीकरण- स्थायी भाव-रति। आश्रय-राम। आलम्बन विभाव-सीता। उद्दीपन विभाव-सीता के आभूषण और वस्त्र। अनुभाव-आभूषण-वस्त्रों को ध्यान से देखना, रोमांच अश्रु, कम्प। व्यभिचारी भाव-आवेग, विषाद, ब्रीड़ा, स्मृति।