प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ का वर्णन :- भारतीय राजनीतिक परम्परा पश्चिमी राजनीतिक चिन्तन परम्परा से भी पुरानी है।
कई विद्वानों ने प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था को हिन्दू राज्य व्यवस्था कहा है। दरअसल, यही हिन्दू राज्य व्यवस्था और शासन प्रणाली ही भारतीय राजनीतिक चिन्तन को खास बनाती हैं तथा पश्चिमी राजनीतिक चिन्तन से भी पुरातन बनाती है।
भारतीय राजनीतिक चिन्तन की अपनी मौलिक विशेषताएँ हैं और ये विशेषताएँ उस समय के भारत के आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और प्रगतियों, राजनीतिक उथल-पुथल एवं बौद्धिक विकास के स्तर से प्रभावित होती हैं।
प्राचीन भारत की राजनीतिक चिन्तन की अवधारणाओं या विशेषताओं का विवरण निम्न रूप में दिया जा सकता है।
धर्म पर आधारित राजनीतिक सिद्धान्त-प्राचीन हिन्दू शासन व्यवस्था का अध्ययन करें तो लगता है कि उस समय की शासन या कानून प्रणाली पर धर्म का स्पष्ट प्रभाव था। दरअसल, प्राचीन भारत में राजनीतिक सिद्धान्तों का विकास धर्म के अंग के रूप में ही हुआ।
यही वजह थी हिन्दू राजशास्त्रवेत्ताओं ने भी राजनीति और धर्म को मिलाकर देखा, उन्हें एक-दूसरे से अलग परखने की जरूरत नहीं महसूस की। राजनीतिक संदर्भ में भी देखे तो भारतीय राजीति की विश्व को यह एक प्रमुख देन है।
उसका यह संदेश कि राजनीति और धर्म के मेल से राज्य या देश की शासन प्रणाली को बेहतर बनाया जा सकता है, आज के संदर्भ में भी बहुत महत्वूपर्ण है।
हिन्दू शासन काल में राजा और शासन का प्रमुख कर्तव्य धर्म का पालन ही माना गया है। यहाँ तक कि शत्रु से भी धर्मयुद्ध करने का निर्देश दिया गया है।
प्राचीन भारत में यह धर्म का प्रभाव था कि राजनीति में नैतिकता का समावेश रहा। भारतीय और पश्चिमी राजनीति की बहस के बीच यह एक विशेष बात है कि भारतीय राजशास्त्र को नीतिशास्त्र कहा गया।
अन्यथा वर्तमान सन्दर्भ में राजनीति में नीति की बात करना ही बेमानी है। वैसे, देखा जाये तो प्राचीन भारत में धर्म और राजनीतिक विचार एक-दूसरे से गुंथे हुए हैं। इसका प्रमाण प्राचीन भारतीय के मुख्य ग्रन्थों को माना जा सकता है।
वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, स्मृतियाँ, महाभारत, रामायण, पुराण आदि ग्रन्थों का जितना साहित्यिक महत्व है, उससे अधिक इन ग्रन्थों की प्रसिद्धि धार्मिक रूप में है। बौद्ध जातक से लेकर जैन धर्म के अनेक ग्रन्थों की महत्ता धार्मिक रूप में ही ज्यादा है।
इन ग्रन्थों की यह विशेषता है कि ये धार्मिक ग्रन्थ होते हुये भी उस समय की राजनीतिक संस्थाओं एवं विचारधाराओं का भी दिग्दर्शन कराते हैं।
राज्य सामाजिक जीवन की आवश्यक संस्था है– प्राचीन भारतीय राजनीतिशास्त्री राज्य के विस्तृत कार्यक्षेत्र और उसकी महत्ता को स्वीकार करते हैं, इसीलिये वह लोककल्याणकारी राज्य में ही यकीन करते थे।
सभी विचारकों का मानना था कि जीवन के तीनों लक्ष्यों- धर्म, अर्थ और काम की राज्य के बिना प्राप्ति सम्भव नहीं है। प्राचीन राजनीतिक विचारक इस बात पर एकमत थे कि राज्य का होना सामाजिक जीवन के लिए सर्वथा आवश्यक और उपयोगी है।
इसके बिना अराजकता का साम्राज्य हो सकता है जिससे जीवन व्यापार की कल्पना दुरुह हो सकती है। चूंकि प्राचीन भारत में व्यक्तिवादी और अराजकतावादी विचारकों का पूर्णतया अभाव रहा है इसलिए भी राज्य नामक संस्था में सभी का विश्वास रहा है।
अराजकतावादियों का मत है कि राज्य एक अनावश्यक और अनुपयोगी संस्था है जबकि व्यतिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानकर इसे खारिज करते हैं। इसके विपरीत वर्तमान परिप्रक्ष्य में भी देखा जाये तो राज्य की महती भूमिका को सभी स्वीकार करते हैं।
यही नहीं, सभी जन एक राज्य के ही नागरिक कहलाते हैं और राज्य ही उन्हें जीवन व्यापार की सभी चीजें सुलभ कराता है।
राज्य के उद्देश्यों पर एकरूपता- राज्य के उद्देश्य के बारे में भारतीय और पाश्चात्य राजनीतिक दार्शनिकों की तुलना करें तो लगता है कि इस मामले में भारतीय राजनीतिक चिंतक उनसे काफी आगे हैं।
पाश्चात्य राजनीतिक दार्शनिकों की राज्य के उद्देश्यों के बारे में तमाम धारणाएँ हैं तो प्राचीन भारतीय राजनीतिक दार्शनिक एकमत से राज्य का उद्देश्य स्वीकार करते हैं। सभी प्राचीन भारतीय विचारक इस बात पर एकमत हैं कि राज्य का प्रथम कर्तव्य धर्म पालन व जनता की रक्षा करना है।
कौटिल्य कहता है कि राजा के लिए यह आदेश है कि वह व्यक्तियों को अपने-अपने धर्म से विचलित न होने दें। सभी प्राचीन भारतीय लेखक भी इस बात पर एकमत हैं कि राज्य का कर्तव्य न्याय का प्रशासन करना है।
राजा के लिए बहुधा यह उपदेश है कि वह अपनी प्रजा के प्रति पिता तुल्य व्यवहार करे। राज्य व शासन के उददेश्यों के प्रति एकमत होने का ही परिणाम रहा कि राज्य के कार्यक्षेत्र के बारे में पाश्चात्य विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों में विभिन्न वादों का जन्म नहीं हुआ।
राजत्व की दैवीय उत्पति की मान्यता – आचार्य मनु ने मनुस्मृति में लिखा है कि राजा की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा की गई है इसलिये उसके पास अदम्य शक्ति एवं सर्वोपरि सत्ता होती है।
मनु का कहना है कि समस्त संसार की रक्षा के निमित्त वायु, यम, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वरुण तथा कुबेर के सर्वोत्तम अंशों को मिलाकर ईश्वर ने राजा का सृजन किया।
महाभारत के शान्तिपर्व में राजा की दैवी उत्पत्ति का संकेत मिलता है। इसके अनुसार जब संसार में मत्स्य न्याय कायम था, तब ईश्वर ने शांति व सुव्यवस्था हेतु राजा को बनाया।
शुक्रनीति में भी राजा के सम्बन्ध में राजत्व की दैवी उत्पत्ति को स्वीकार किया गया है। कौटिल्य ने राजा और राज्य के बीच कोई अन्तर नहीं किया। कालिदास ने भी कहा है कि विश्व के प्रशासन का जुआ स्वयं सृष्टिकर्ता ने राजा के कन्धों पर रखा है।
कहा भी जाता है कि जब सारी प्रजा सोती है तो राजा उसकी रक्षा के लिए जागता है।
दण्ड नीति – महाभारत के एक पर्व में भीष्म कहते हैं कि “संसार में यदि दण्ड की व्यवस्था न होती तो सब लोग एक-दूसरे को पीस डालते। दण्ड के ही भय से कोई किसी पर हाथ नहीं उठाता। दण्ड सुरक्षा है, सबको आश्रय देने वाला है। जो दण्ड है, वही सनातन व्यवहार है। जो सनातन व्यवहार है, वही वेद है। जो वेद है, वही धर्म है। जो धर्म है, वही सत्पुरुषों का मार्ग है। जो सत्पुरुषों का मार्ग है, वही न्याय है।”
चूंकि भारतीय मनीषी मानवीय जीवन में आसुरी प्रवृत्तियों की प्रबलता को स्वीकार करते हैं, इसीलिए उन्होंने दण्ड नीति की शक्ति को अधिक महत्व दिया है।
प्राचीन भारतीय राजनीति में दण्ड के महत्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसका नामकरण तमाम लेखकों ने दण्ड नीति के रूप में किया है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र दण्ड नीति को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुए अन्य सभी विद्याओं को उसी के मातहत बनाता है जबकि मनु के कथनानुसार दण्ड ही शासक है।
आध्यात्मिकता का प्रभाव – प्राचीन भारतीय इतिहास का अध्ययन करने पर लगता है कि भारतीय राजनीतिक चिंतन पर आध्यात्मिकता का भी प्रभाव रहा है।
उदाहरणार्थ – वैदिक एवं परवर्ती साहित्य में यह उल्लेख आता है कि राक्षसों या असुरों का नाश करने के लिए राजा का उद्भव हुआ।
चूंकि ये असुर या राक्षस धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ आदि क्रियाओं में विघ्न पहुंचाते थे, इसलिये राजा को अस्तित्व में लाया गया ताकि वह अपनी शक्ति-कौशल से तपस्वियों एवं साधुजनों की रक्षा कर सके।
राज्य का स्वरूप, राजा के कार्य, व्यक्ति एवं राजा का सम्बन्ध, राजा की शक्तियाँ, राज्य का संगठन आदि सभी प्रश्नों पर विचार करते समय देखा जाये तो आध्यात्मिक दृष्टिकोण की प्रधानता मिलती है।
Industry refers to economic activities, which are connected with conversion of resources into useful goods. Industry is concerned with the…
Business refers to any occupation in which people regularly engage in an activity with an objective of earning profit. The…
According to Prof. Samuelson, every economy has three basic problems of resource allocation: (a) What to produce and how much…
The introduction of High Yielding Varieties (HYV) of seeds and the increased use of fertilisers, pesticides and irrigation facilities are…
Yes, we agree with the above statement that the traditional handicrafts industries were ruined under the British rule. The following…
India was under British rule for almost two centuries before attaining Independence in 1947. The main focus of the economic…