‘काव्य की आत्मा ध्वनि है’—यह सिद्धान्त यद्यपि काफी पुराना है, परन्तु फिर भी बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता।
जिन दिनों यह सिद्धान्त प्रतिष्ठालाभ करने लगा था, उन दिनों काव्य नाम से ऐसी बहुत-सी बातें परिचित हो चुकी थीं जिन्हें इस सिद्धान्त के माननेवालों को छोड़ देना पड़ता।
ध्वनि के सिद्धान्त को माननेवालों ने बहुतेरी बातों को उत्तम काव्य मानने से इनकार कर दिया, पर बहुत-कुछ को उन्होंने स्वीकार भी किया।
आचार्य आनन्दवर्धन ने ‘ध्वनि’ को ही काव्य की आत्मा माना है (ध्वनिरात्मा काव्यस्य) और वह भी अपने मत से ही नहीं, अपितु प्राचीन अलिखित परम्परा के आधार पर वे ‘ध्वनि ‘ को ही काव्य की आत्मा मानने के पक्ष में है।
ध्वनि के सिद्धान्त को माननेवालों ने तीन श्रेणियों में विभक्त किया—(1) वस्तु-ध्वनि, (2) अलंकार-ध्वनि, और (3) रसध्वनि।
जहाँ कोई वस्तु या अर्थ ध्वनित होता हो वहाँ ‘वस्तु-ध्वनि’, जहाँ कोई अलंकार ध्वनित हो वहाँ ‘अलंकार-ध्वनि’ और जहाँ कोई रस ध्वनित हो वहाँ ‘रस-ध्वनि’।
ऐसा जान पड़ता है कि व्यवहार में ये सभी ध्वनिवादी रस-ध्वनि को ही काव्य की आत्मा मानते थे।
प्रथम दो प्रकार की ध्वनियाँ प्राचीन प्राचार्यों से समझौता करने के लिए मान ली गयी थीं।
रस को उत्तम ध्वनि तो माना ही गया है। विश्वनाथ नामक आचार्य ने तो रसात्मक वाक्य को ही काव्य कहा है, अर्थात् उनके मत से काव्य की आत्मा रस है, बाकी दो ध्वनियाँ नहीं।
दूसरी पुस्तक में यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि जब ध्वनिवादी प्राचार्य ध्वनि को काव्य की आत्मा कहते हैं तो वस्तुतः उनका अभिप्राय रस-ध्वनि से ही होता है।