अकबर ने स्वयं का एक धर्म दीन-ए-इलाही चलाया। अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी। 1562 ई. में अकबर ने युद्ध बन्दियों को दास बनाने की प्रथा पर रोक लगायी। 1563 ई. में अकबर ने तीर्थ यात्रा कर बन्द कर दिया। दार्शनिक व धार्मिक प्रश्नों पर वाद-विवाद करने के लिये अकबर ने फतेहपुर सीकरी में 1575 ई. में इबादतखाना का निर्माण कराया। यहाँ शेख अब्दुल नवी एवं अब्दुल्ला सुल्तानपुरी के मध्य होने वाले अशोभनीय झगड़ों को देखकर 1579 ई. में अकबर ने महजर की घोषणा की। इसके द्वारा किसी भी विवाद पर अकबर की राय ही अन्तिम राय होगी ।
अकबर ने अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये विभिन्न धर्मों के विद्वानों से उनके धर्म की जानकारी ली-
(1) हिन्दू धर्म – पुरुषोत्तम एवं देवी से हिन्दू धर्म की जानकारी प्राप्त की। हिन्दू धर्म से प्रभावित होकर वह माथे पर तिलक लगाने लगा।
(2) पारसी धर्म – दस्तूर मेहर जी राणा से पारसी धर्म की जानकारी ली। इससे प्रभावित होकर उसने सूर्य की उपासना आरम्भ की। दरबार में हर समय अग्नि जलाने की आज्ञा दी।
(3) जैन धर्म की शिक्षा आचार्य शांतिचन्द एवं हीर विजय सूरी से ली।
(4) सिख धर्म से प्रभावित होकर पंजाब का एक वर्ष का कर माफ
किया ।
(5) ईसाई धर्म – ईसाई धर्म से प्रभावित होकर आगरा एवं लौहार में गिरजाघर का निर्माण कराया।
19 फरवरी, 1580 ई. में प्रथम जेसुइट मिशन फतेहपुर सीकरी आया । इसमें फादर एक्वैविवा एवं एण्टोनी मानसटेर थे।
दूसरा जेसुइट मिशन 1591 ई. में लाहौर आया। तृतीय मिशन भी लाहौर में 1595 ई. में आया । सत्य की खोज करते-करते उसने पाया कि सभी धर्मों में अच्छाइयाँ हैं मगर कोई भी धर्म सम्पूर्ण नहीं है । अत: उसने 1581 ई. में स्वयं का एक धर्म दीन-ए-इलाही चलाया। आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि इस धर्म के द्वारा वह हिन्दू व मुस्लिम धर्म को मिलाकर साम्राज्य में राजनीतिक एकता कायम करना चाहता था। उस धर्म को स्वीकार करने वाला एकमात्र हिन्दू बीरबल था ।
1564 ई. में अकबर ने जजिया कर बन्द कर दिया था । यह समस्त भारत की गैर-मुस्लिम जनता से वसूला जाता था।