गांवों में जाति व्यस्था को समझाइए

गांवों में जाति व्यवस्था :- 

जाति-व्यवस्था भारत की अति प्राचीन सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था है। स्वाभाविक है कि भारत जैसे परम्परागत समाज में जाति-व्यवस्था की स्थिरता और निरन्तरता को बनाये रखना एक नैतिक दायित्व के रूप में देखा जाता रहा है। भारत का ग्रामीण समाज पूर्णतया एक परम्परागत समाज है जिसमें आज भी व्यक्ति के व्यवहारों का निर्धारण बहुत बड़ी सीमा तक जाति द्वारा प्रतिपादित नियमों के आधार पर ही होता है। अनेक विद्वानों ने अपने अध्ययनों के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि ‘ग्रामीण एकता’ यद्यपि एक कल्पना मात्र है लेकिन जाति-व्यवस्था ने भारत में ग्रामीण एकता स्थापित करने के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यही कारण है कि

“नगरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जाति-व्यवस्था का प्रभाव सबसे अधिक है।”1

नगरीय समदायों में आज जाति-व्यवस्था का प्रभाव तेजी से कम होता जा रहा है. जबकि ग्रामीण जीवन में आज भी व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति का निर्धारण करने वाला सबसे महत्वपूर्ण आधार है। ग्रामीण जीवन में जाति-व्यवस्था की भूमिका को स्पष्ट करते हुए टी. एन. मदान ने लिखा है कि

“भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना में जाति संस्था का सर्वाधिक महत्व है। यह ग्रामीणों के आचरण को ही सुनिश्चित नहीं करती बल्कि उनके जीवन की सम्पूर्ण रूपरेखा का प्रतिनिधित्व भी करती है। वास्तव में जाति-व्यवस्था हिन्दू समाज का पर्याय है।”2

इस कथन से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि भारत की ग्रामीण सामाजिक संरचना को जाति के अभाव में स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

ग्रामीण जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जाति-व्यवस्था की भूमिका को निम्नांकित रूप से भली-भाँति समझा जा सकता है
(1) जाति तथा ग्रामीण आर्थिक जीवन (Caste and Rural Economic Life)—भारत में ग्रामीणों के सम्पूर्ण आर्थिक जीवन में जाति-व्यवस्था का स्पष्ट प्रभाव है। यह सत्य है कि वर्तमान युग में ग्रामीण आर्थिक संरचना को प्रभावित करने में जाति-व्यवस्था का प्रभाव पहले की अपेक्षा कुछ कम हो गया है लेकिन तो भी ग्रामीण आर्थिक जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जो जातिगत नियमों के द्वारा कुछ सीमा तक प्रभावित न होता हो । यदि उत्पादन के क्षेत्र में देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि गाँव में विभिन्न जातीय समूहों में जाति के आधार पर ही उत्पादन का स्वरूप निर्धारित होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह इन नियमों के अनुसार ही उत्पादन का कार्य करेगा। गाँव में परम्परागत वर्गों की स्थिति में परिवर्तन होने के कारण आज अनेक उच्च जातियाँ अपनी भूमि को अन्य कृषकों के हाथ बेचने लगी हैं लेकिन तो भी जाति के नियमों ने उनकी सामाजिक स्थिति को काफी सीमा तक सुरक्षित बनाये रखा है। यदि उपभोग के दृष्टिकोण से देखा जाय तो भी यह स्पष्ट होता है कि ग्रामीण क्षेत्र में प्रत्येक जातीय समूह के लिए उपभोग सम्बन्धी कुछ विशेष प्रतिमान निर्धारित हैं। प्रत्येक जातीय समूह अपने सदस्यों के लिए यह निर्धारित करता है कि उनको खान-पान, वेश-भूषा, आभूषणों और बर्तनों आदि के उपयोग के लिए व्यवहार के किन प्रतिमानों का पालन करना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति यदि जाति के नियमों की अवहेलना करता है तो उसका अन्य जातियों के द्वारा विरोध किया जाता है। इसके फलस्वरूप गाँव में एक ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित हुई है जो न केवल आत्म-निर्भर है बल्कि जिसमें परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं का भी अधिक समावेश नहीं है।
(2) निवास स्थान तथा क्षेत्र का निर्धारण (Determination of Region and Settlement)—ग्रामीण आवास प्रतिमान (rural settlement pattern) तथा जाति-व्यवस्था के नियमों के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध है। गाँवों में विभिन्न जातीय समूहों का निवास अलग-अलग बस्तियों अथवा मुहल्लों में होता है और अक्सर इन बस्तियों को उनकी जातियों के आधार पर ही सम्बोधित किया जाता है। उदाहरण के लिए, चमरौट (हरिजन जातियों की बस्ती), अहिरौट (अहीरों की बस्ती) तथा बभनौटी (ब्राह्मणों की बस्ती) आदि ऐसे क्षेत्रीय शब्द हैं जिनका गाँवों में अत्यधिक प्रचलन है तथा जो स्पष्ट रूप से निवास-क्षेत्र के निर्धारण में जातिगत प्रभाव को स्पष्ट करते हैं। भारत के अधिकांश गाँवों में आज भी अनुसूचित जातियों की बस्तियाँ गाँव से कुछ दूरी पर पश्चिम अथवा दक्षिण दिशा में स्थित होती हैं। बाह्य रूप से यह विभाजन जाति-व्यवस्था के एक शोषणकारी पक्ष के रूप में देखा जा सकता है लेकिन मूल रूप से यह विभाजन जाति-व्यवस्था के प्रकार्यात्मक पक्ष से ही सम्बन्धित है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक जाति को अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं का स्वतन्त्र रूप से विकास करने के अवसर प्रदान किये गये।
(3) जाति तथा व्यवसाय (Caste and Occupation):- ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले व्यवसाय तथा उससे सम्बद्ध मनोवृत्तियों पर जाति-व्यवस्था की स्पष्ट छाप देखने को मिलती है। गाँव में यह आवयश्क समझा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने परम्परागत व्यवसाय के द्वारा ही आजीविका उपार्जित करे। जिस व्यक्ति के लिए जो व्यवसाय निर्धारित है, उस पर उसका एकाधिकार समझा जाता है। इसके फलस्वरूप गाँव में सभी जातीय समूह अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं। इस स्थिति को देखते हुए डॉ. श्रीनिवास ने लिखा है कि “एक गाँव में अथवा समीप के अनेक क्षेत्रों में निवास करने वाले विभिन्न जातीय समूह व्यावसायिक आधार पर परस्पर निर्भर हैं। प्रत्येक जाति का यद्यपि एक विशेष पेशे पर एकाधिकार होता है लेकिन यह एकाधिकार उनको एक-दूसरे से उतना पृथक् नहीं करता जितना कि उनको एक-दूसरे से जोड़ता है।” नगरीय जीवन में आज जातिगत आधार पर निर्मित व्यावसायिक संरचना पूर्णतः टूट चुकी है लेकिन भारतीय गाँवों में आज भी व्यक्ति अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़ना एक अनैतिक कार्य समझता है। जाति की इस भूमिका के फलस्वरूप गाँवों में आज जजमानी व्यवस्था का प्रचलन है और इसी के फलस्वरूप परम्परागत ग्रामीण आत्म-निर्भरता एक बड़ी सीमा तक ग्रामीण जीवन की विशेषता बनी हुई है।

(4) जाति तथा पारिवारिक जीवन (Caste and Family Life):- परिवार सम्पूर्ण सामाजिक संरचना की केन्द्रीय इकाई है। जाति-व्यवस्था ने बहुत प्राचीन काल से ही उन मान्यताओं को बल दिया है जो ग्रामीण संयुक्त परिवारों को स्थिर बनाये रखने में अत्यधिक सहायक हैं। ग्रामीण जीवन के सभी अध्येता यह स्वीकार करते हैं कि संयुक्त परिवार प्रणाली ग्रामीण जीवन की आवश्यकताओं के पूर्णतया अनुकूल है। अनेक अध्ययनों के आधार पर यह भी प्रमाणित हो चुका है कि जिन ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकाकी परिवारों की संख्या बढ़ी है वहाँ अनेक विघटनकारी समस्याओं का प्रादुर्भाव हो गया है। वास्तविकता यह है कि जाति-व्यवस्था ने व्यवहार के सभी ढंगों का निर्धारण करके तथा अनेक आदेशों
और निषेधों के द्वारा ग्रामीण संयुक्त परिवारों को टूटने से बचाया है। यदि कोई व्यक्ति जाति से सम्बन्धित जीवन-विधि, क्रिया-कलापों, मूल्यों, अभिवृत्तियों और व्यवहारों का उल्लंघन करता है तो जातीय नियमों के अनुसार ऐसे व्यक्ति को सामाजिक दण्ड मिलता है। इस भय से साधारणतया कोई भी व्यक्ति ग्रामीण संयुक्त परिवार के नियमों की अवहेलना करने का साहस नहीं कर पाता।
(5) धार्मिक स्थिरता में योगदान (Contribution to Religious Stability)—ग्रामीण समुदाय में जाति और धर्म के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध बना हुआ है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ग्रामीण जीवन की विधि ग्रामीण साधनों के अनुसार ही विकसित हुई। साधनों के अभाव में यदि धार्मिक विश्वास दुर्बल पड़ जायें तो वैयक्तिक और सामुदायिक समस्याओं में इतनी वृद्धि हो सकती है कि सम्पूर्ण ग्रामीण सामाजिक संरचना ही टूट सकती है। इन धार्मिक विश्वासों को संरक्षण प्रदान करने तथा उनके प्रभाव को बनाये रखने में जाति-व्यवस्था की भूमिका निश्चय ही बहुत महत्वपूर्ण है। जाति के नियम व्यक्ति को अपने वंश, कुल और क्षेत्र की मर्यादाओं से बाँधे रखते हैं। इनके द्वारा व्यक्ति को अपने स्थानीय धार्मिक विश्वासों के अनुसार व्यवहार करने को बाध्य किया जाता है तथा जाति-पंचायत किसी भी ऐसे व्यक्ति को दण्ड देने का कार्य करती है जो धर्म-विरोधी आचरण प्रदर्शित करता है। प्रत्येक जातीय समूह के लिए धार्मिक कर्मकाण्डों की अनिवार्यता को स्पष्ट करके भी जाति-व्यवस्था धार्मिक स्थिरता को बनाये रखने में योगदान देती है। इस दृष्टिकोण से भारतीय ग्रामीण धर्म को जाति-व्यवस्था से पृथक् करके स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

(6) जाति-व्यवस्था और ग्रामीण सामाजिक मूल्य (Caste System and Rural Social Values)—सामाजिक मूल्य व्यक्ति की मनोवृत्तियों तथा व्यवहारों का निर्धारण करके सामाजिक संगठन को एक विशेष रूप प्रदान करने का कार्य करते हैं। भारतीय ग्रामीण समुदाय में जाति की यह एक महत्वपूर्ण भूमिका है कि इसने सामाजिक मूल्यों का निर्धारण इस प्रकार किया है जिससे कोई भी समूह एक-दूसरे से संघर्ष न करके पारस्परिक सहयोग के आधार पर एक-दूसरे को अपनी सेवाएँ प्रदान करता रहे। जाति के आधार पर निर्मित यह मूल्य-व्यवस्था आज नगरों में बहुत बड़ी सीमा तक टूट चुकी है लेकिन ग्रामीण जीवन में आज भी इसके प्रभाव में कोई ह्रास देखने को नहीं मिलता। यही कारण है कि नये सामाजिक अधिनियम बन जाने के पश्चात् भी गाँवों में बाल-विवाह, विधवा-विवाह पर नियन्त्रण, दहेज प्रथा, खान-पान सम्बन्धी निषेध तथा संस्कारों की पूर्ति करने का प्रचलन बना हुआ है। इसका तात्पर्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा धार्मिक मूल्यों पर जाति-व्यवस्था का स्पष्ट प्रभाव है।

(7) जाति का शिक्षा पर प्रभाव (Impact of Caste on Education) :- गाँव में जाति ही शिक्षा की प्रकृति और शिक्षा के प्रति व्यक्तियों की मनोवृत्तियों का निर्धारण करती हैं। अनेक परिवर्तन हो जाने के पश्चात् भी गाँव में आज ब्राह्मण जातियाँ अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा देना अधिक महत्वपूर्ण समझती हैं, जबकि एक कृषक अपने बच्चे को बहुत छोटी आयु से ही कृषि कार्य में प्रशिक्षित करता है। अनुसूचित जातियों में अनेक सुविधाओं के बाद भी स्कूली शिक्षा को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है, जबकि दस्तकारी करने वाली जातियाँ बच्चों को स्कूली शिक्षा देने के बाद भी दस्तकारी में उनकी प्रवीणता को अधिक आवश्यक मानती हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. देसाई का कथन है कि “गाँवों में शिक्षा का मूल्यांकन व्यक्तिगत विकास अथवा सामाजिक उन्नति के आधार पर नहीं किया जाता है बल्कि इसका मूल्यांकन जातिगत परम्पराओं के सन्दर्भ में किया जाता है।”1 इससे स्पष्ट होता है कि गाँवों में जातिगत नियमों की सहायता से न केवल बेरोजगारी की समस्या को दूर कर सकना सम्भव हो सका है बल्कि इनकी सहायता से प्रत्येक जातीय समूह को एक विशेष व्यावसायिक ज्ञान में कुशलता अर्जित करने के लिए भी प्रोत्साहन मिला है।

गांवों में जाति व्यवस्था के दोष :-

(1) निम्न जातियों का शोषण (Exploitation of Lower Castes)—जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च जातियों को प्रदत्त विभिन्न अधिकारों का उपयोग इतने मनमाने ढंग से होने लगा कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जाति के लोग शोषण का प्रतीक बन गये। यह शोषण राजतन्त्र और सामन्तवाद के युग में भले ही सामाजिक व्यवस्था के लिए इतना विषम न समझा जाता हो लेकिन प्रजातन्त्र, समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता के युग में इसे किसी भी प्रकार न्यायपूर्ण और तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता। कोई भी प्रजातन्त्र करोड़ों व्यक्तियों को चेतनाहीन तथा शोषित वर्ग के रूप में विकसित करके सुरक्षित नहीं रह सकता।
(2) अस्पृश्यता की समस्या (Problem of Untouchability)—गाँवों में व्यापक रूप से व्याप्त अस्पृश्यता की समस्या जाति-व्यवस्था से ही सम्बद्ध है। अतीत में जाति-व्यवस्था ने कर्म, प्रारब्ध तथा पुनर्जन्म के विश्वासों के द्वारा अस्पृश्यता की धारणा के औचित्य को सिद्ध कर दिया था, लेकिन आज जबकि अनुसूचित जातियों ने समानता के अधिकारों का दावा करना आरम्भ कर दिया तो गाँवों में ऊँची और अनुसूचित जातियों के बीच हिंसक संघर्ष आरम्भ हो गये। इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन के अन्तर्गत पारस्परिक घृणा, वैमनस्य, हिंसा और गुटबन्दी का वातावरण ग्रामीण जीवन की सरलता और पवित्रता को नष्ट करने लगा।

(3) सामाजिक समस्याओं में वृद्धि (Rise in Social Problems)-जाति से सम्बन्धित अन्तर्विवाह, बाल-विवाह, दहेज-प्रथा तथा विधवा पुनर्विवाह पर नियन्त्रण जैसे नियमों ने आज भारतीय ग्रामीण जीवन में गम्भीर समस्याओं को जन्म दिया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था नगरीय अर्थव्यवस्था से इस अर्थ में पूर्णतया भिन्न है कि गाँवों में प्रत्येक आर्थिक क्रिया में त्रियों के सहभाग को आवश्यक माना जाता है। जाति-व्यवस्था ने ग्रामों में स्त्रियों की स्थिति को इतना निम्न बना दिया कि आर्थिक क्रियाओं में सहभाग करने के पश्चात् भी उन्हें परिवार और समूह में कोई व्यावहारिक अधिकार प्राप्त नहीं हो सके। जाति-व्यवस्था ने जाति-विभाजन द्वारा एक ऐसी विघटनकारी ग्रामीण संस्कृति का निर्माण किया जिसमें कुरीतियों, रूढ़ियों, कर्मकाण्डों और अन्धविश्वासों को ही धर्म का प्रतिरूप समझा जाने लगा। जाति के नियमों के प्रभाव से गाँवों में अधिकांश व्यक्ति आज भी स्वयं को सामाजिक और आर्थिक रूप से असुरक्षित अनुभव करते हैं।
(4) संघर्षपूर्ण समूहों का निर्माण (Formation of Conflicting Groups)—भारत के ग्रामीण जीवन में जाति का एक विघटनकारी स्वरूप अनेक संघर्षपूर्ण समूहों के निर्माण के रूप में स्पष्ट हुआ है। जो जातियाँ परम्परागत रूप से अधिकार सम्पन्न थीं वे आज भी जाति-व्यवस्था की अलौकिकता पर विश्वास दिलाकर अपने अधिकारों के औचित्य को प्रमाणित करने का प्रयत्न करती हैं, जबकि निम्न जातियाँ अब जाति से सम्बन्धित उच्चता और निम्नता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। मनोवृत्तियों के इस द्वन्द्व ने गाँवों में प्रत्येक जातीय समूह को परस्पर-विरोधी और संघर्षपूर्ण समूहों के रूप में परिवर्तित कर दिया है। अनेक क्षत्रिय जातियाँ आज भी इस भावना से आश्वस्त हैं कि अन्य जातियों को नियन्त्रण में रखना तथा अनुसूचित जातियों से मनमाना व्यवहार करना उनका जाति प्रदत्त अधिकार है, जबकि नये कानूनों तथा नवीन न्याय-व्यवस्था द्वारा इस अधिकार को मान्यता प्रदान नहीं की जाती। इसके फलस्वरूप ऊँची जातियों में निराशा, हीनता और आक्रोश जैसे मनोभाव उत्पन्न हुए हैं, जबकि निम्न जातियों में इसकी प्रतिक्रिया के रूप में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हुई है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया ने ग्रामीण जीवन को विघटन के ऐसे कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ कोई भी जातीय समूह बिना दलबन्दी के अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं करता।
(5) आर्थिक कुशलता में ह्रास (Decline in Economic Efficiency)—जाति-व्यवस्था द्वारा जन्म से ही व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण कर देने से उसकी आर्थिक कुशलता में बहुत ह्रास हुआ है। आज भी गाँवों में बहुत-से व्यक्ति पवित्रता सम्बन्धी धारणा के आधार पर रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग करना उचित नहीं समझते। गाँव में यदि कोई व्यक्ति अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर अपनी रुचि और कुशलता के अनुसार कोई नया व्यवसाय करना चाहता है तो अन्य जातियों द्वारा उसे ऐसा करने से रोक दिया जाता है। इसका स्वाभाविक परिणाम न केवल व्यावसायिक एकाधिकार के रूप में हमारे सामने आया है बल्कि निम्न जातियों की आर्थिक दशा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो सका है।
(6) स्थानीय गतिशीलता में बाधक (Obstacle in Spatial Mobility)—जाति-व्यवस्था ने प्रत्येक व्यक्ति को अपने परिवार, जाति और गाँव से इस प्रकार बाँध रखा है कि स्थानीय गतिशीलता के क्षेत्र में एक विषम समस्या उत्पन्न हो गई है। अनेक स्थानों में कार्य का अभाव होने के कारण बेरोजगारी की समस्या बढ़ती जा रही है तो दूसरी ओर जिस स्थान पर रोजगार के साधन उपलब्ध हैं वहाँ गतिशीलता में कमी होने के कारण कुशल श्रमिक उपलब्ध नहीं हो पाते। आज भी यदि निम्न जाति का कोई व्यक्ति अपना गाँव छोड़कर किसी दूसरे गाँव में आजीविका उपार्जित करना चाहे तो अन्य जातियों द्वारा साधारणतया उसे इसकी अनुमति नहीं दी जाती।
(7) अनुत्पादक वर्गों का निर्माण (Formation of Unproductive Classes)—जाति-व्यवस्था की परम्परागत तथा पवित्रता की संकीर्ण विचारधारा ने समाज में एक बहुत बड़े अनुत्पादक वर्ग का निर्माण किया है। यह वर्ग वह है जो स्वयं को उच्च जाति से सम्बद्ध होने के कारण अपने अधिकारों को अलौकिक मानता है और इसलिए स्वयं कोई श्रम करना अनुचित समझता है। यह वर्ग स्वयं तो रूढ़ियों का पोषक है ही साथ ही इसने कर्मकाण्डों, कुरीतियों और अन्धविश्वासों को प्रोत्साहन देकर सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है।

JAI YADAV

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