व्यक्ति और समाज का द्वंद्व कम लेखकों में होता है । शीतयुद्ध के जमाने में ऐसा रहा । अब स्थिति बदली है। समाज बनता तो व्यक्तियों के जरिए ही है। मनुष्य समाज का अविच्छिन्न हिस्सा है। समाज उसमें निहित है। उसी को सर्वोपरि माना जाना चाहिए।
कवि के अंदर व्यक्ति और समाज के हितों के बीच का द्वंद्व सार्थक लेखन की भूमिका बनाता है| कवि के अंदर व्यक्ति और समाज के हितों का द्वंद्व बहुत स्थूल और विभाजित रूप में नहीं चलता। समाज कवि के बाहर नहीं होता। वह उसके भीतर ही होता है। जैसे हर आदमी के भीतर उसके पुरखों का रक्त होता है। बाहर का समाज ही कवि के भीतर एक रचनात्मक मंथन पैदा करता है। एक भीतरी बेचैनी। एक लिखने की प्रेरणा । एक अभिव्यक्ति की छटपटाहट ।