आसन:- पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। आसन को योग साधना की तैयारी में एक महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है।
महर्षि पतंजलि ने आसन को परिभाषित करते हुए लिखा, “स्थिर सुखम आसन” अर्थात् जिस मुद्रा में शरीर सुखपूर्वक स्थिर रह सके वही आसन है।
आसन का विकास हमारे शरीर के अंगों के उपयोग में लाने के उद्देश्य से हुआ है। यह पूर्णतया मानव शरीर पर केंद्रित है। आसन हमें शरीर की देखभाल, मेडिटेशन, ध्यान व आत्मकेंद्रित होना सिखाता है।
यह शारीरिक व्यायाम ही नहीं है, अपितु ऐसी शारीरिक स्थितियाँ हैं जिसके द्वारा अपने मन को साधा जा सकता है। आसन का प्रभाव हमारी अंत:स्रावी ग्रंथियों पर पड़ता है, जिससे उनकी क्रियाओं में सुधार होता है।
आसन को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता
1. ध्यानात्मक आसन
2. विश्रांतिकर आसन
3. संवर्धनात्मक आसन।
1. ध्यानात्मक आसन – पद्मासन, सिद्धासन, वज्रासन, भद्रासन, मुक्तासन, स्वस्तिकासन आदि आसनों का अभ्यास ध्यान के पूर्व करना अनिवार्य होता है क्योंकि केवल इन्हीं आसनों में स्थित होकर ध्यान किया जाता है इसलिए इन्हें ध्यानात्मक आसन कहते हैं।
2. विश्रांतिकर आसन – (आरामदायक आसन) कुछ आसन जैसे कि शवासन व मकरासन ऐसे आसन होते हैं जो शरीर को पूर्ण विश्रांति प्रदान करते हैं।
3. संवर्धनात्मक आसन अथवा सांस्कृतिक आसन:- पश्चिमोत्तानासन, गुप्तासन, सिंहासन, गोमुखासन, धनुरासन, वीरासन, गोरक्षासन, मत्स्येंद्रासन, कूर्मासन, उत्तान, मण्डूकासन, मयूरासन, वृषभासन, उत्कटासन, कुक्कुटासन, शलभासन, ऊष्ट्रासन, भुजंगासन एवं गरुड़ासन आदि आसनों का अभ्यास शारीरिक विकास के लिए किया जाता है।
विभिन्न प्रकार के आसन इस प्रकार से प्रतीत होते हैं जिनके द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को पुनर्वास एवं ध्यान तथा समाधि की अवस्था के लिए स्थिर और आरामदायक स्थिति प्राप्त होती है।
योगासनों का नामकरण मुख्य रूप से विभिन्न पशु, पक्षी एवं पेड़-पौधों के नाम पर किया गया है, इसका मुख्य कारण यह है कि योगासन करते समय आसन-विशेष की अंतिम अवस्था इनमें से पशु, पक्षी, पेड़-पौधे किसी विशेष की आकृति से समानता लगती है।
आसनों पर पूर्णरूप से अधिकार प्राप्त कर लेने पर जय-पराजय, शरीर-मन, यश-अपयश, मन-आत्मा, लाभ-हानि इत्यादि जैसे द्वैत अवस्थाएँ समूल नष्ट हो जाती हैं और तब साधक योगमार्ग की चौथी स्थिति प्राणायाम में प्रवेश कर जाता है।