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अषता का एक दिन का आलोचनात्मक मूल्यांकन

आषाढ़ का एक दिन का आलोचनात्मक मूल्यांकन:-    “आषाढ़ का एक दिन” नाटक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, परन्तु इसी नाटक की ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में राकेश का अपना मत है कि – “साहित्य इतिहास के समय में बंधता नहीं, समय में इतिहास का विस्तार करता है।

साहित्य में इतिहास अपनी यथातथ्य घटनाओं में व्यक्त नहीं होता। वह घटनाओं को जोड़ने वाली ऐसी कल्पनाओं में व्यक्त होता है जो अपने ही एक नये और अलग रूप में इतिहास का निर्माण करता है।”

मोहन राकेश ने “आषाढ़ का एक दिन’ नाटक को उस नजरिये से लिखा कि वह नाटक न सिर्फ अपने रचनाकाल में ही अपितु हर काल में सजीव हो उठा।

कालिदास उच्च कोटि का कवि तो है ही, मल्लिका उनकी प्रेरणा एवं कल्पनाशक्ति को बढ़ाने का एक साधन है। मगर, इधर कालिदास अच्छा कवि होने के बावजूद प्रतिष्ठा-सम्पन्न नहीं है। उसके साथ धन तथा अवसरों का अभाव जुड़ा रहा है।

कालिदास को प्रतिष्ठा सम्पन्न होने हेतु अपने अभावों से लड़ना होगा और वह लड़ता है। इसी संघर्ष के दौरान उनकी प्रेरणा मल्लिका मात्र प्रेरणा रह जाती है। यहाँ कालिदास अपनी पूर्व प्राप्तियों को मन से संजोये अपने अभावों को दूर करने हेतु संघर्षशील है या कहें व्यस्त हैं।

नाटक का मूल कथ्य किसी एक से सम्बन्धित न होकर समस्त से है क्योंकि यहाँ कोई भी व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न नहीं है और सभी में वही कशमकश मौजूद है। चाहे वह विलोम हो या कालिदास या फिर कालिदास हो या विलोम।

कहीं योग्यता है तो प्रतिष्ठा नहीं और कहीं प्रतिष्ठा पाना आसान हो भी तो योग्यता ही नहीं है। वास्तव में अपने वर्तमान की संगति में ऐतिहासिक संदर्भ का किस रूप में उपयोग किया जा सकता है, या किया जाए ही राकेश की मूलतः नाट्य समस्या रही होगी।

इसी कारणवश कालिदास के ऐतिहासिक जीवन-वृत्त के आधार पर “आषाढ़ का एक दिन” की रचना नहीं की गई है बल्कि राकेश ने अपनी ही एक पंक्ति की तरह “कल्पना में कल्पना का वरण” किया है। चूंकि ये रचना भावना और विचारों की दृष्टि से निरोल आधुनिक है।

प्रतिष्ठा और प्रेम का द्वन्द्व जो हर युग में सार्थक है, यहाँ भी स्पष्ट नज़र आता है। कालिदास इस द्वन्द्व से गुज़रता हुआ प्रतिष्ठा की तरफ झुक जाता है और अपनी प्रेयसी से विवाह किये बिना राज्याश्रय स्वीकार करता है और यही प्रतिष्ठा की लालसा उसे राजकुमारी का पति बना देती है।

प्रेम के खेल में हारे हुये खिलाड़ी की भांति वह अपनी प्रेमिका का सामना तब भी नहीं कर पाता जब वह वहाँ से कश्मीर का शासन ग्रहण करने के लिये वहीं से गुज़रता है अपितु तब आता है जब उसका शासन के प्रति मोहभंग हो जाता है और उसे वह जीवन अरूचिकर प्रतीत होने लगता है।

इसी संदर्भ की एक महत्त्वपूर्ण विडंबना यह है कि पुरुष स्वयं समय को कितना जी चुका है यह ध्यान दिये बिना वह अपनी प्रेमिका को उसी रूप में पाना चाहता है जिसमें उसने उसे छोड़ा था।

अपने जीवन में आये परिवर्तनों को गिने बिना ही वह मल्लिका का जीवन-परिवर्तन स्वीकार ही नहीं कर पाता और मानसिक स्तर पर बिखर जाता है।
वैसे भी राज्याश्रय एक कलाकार के व्यक्तित्व के विकास में बाधक होता है।

उसकी कला के विकास के लिये मानवता की विशाल भूमि ही उपयुक्त रहती है। आधुनिक युवक की तरह “आषाढ़ का एक दिन” का कालिदास मात्र भावना के स्तर पर मल्लिका से बंधा है, लेकिन भौतिक परिवेश में वह मल्लिका से बहत दर चला गया है।

उस पर्वतीय-प्रकृति – प्रेमी युवक का शासक के रूप में मोहभंग होना ही था और उसे लौटकर आना ही था। लेकिन, जब वह पुनः वापिस आता है तो उसके पूर्व परिवेश का अपनापन जैसे कहीं खो गया है जबकि मानसिक स्तर पर वही सब मौजूद भी है मल्लिका की भावना के रूप में।

वैसे मल्लिका भी कालिदास की कल्पना-शक्ति की ही प्रेम दीवानी है, न कि उसके शरीर की। हालांकि देखा जाए तो शरीर और मस्तिष्क अलग-अलग नहीं है। मगर उसका स्पष्ट प्रेम कालिदास की उन रचनाओं पर जाहिर होता है जो उसके चिन्तन में पलकर बड़ी हुई है।

शारीरिक रूप से कालिदास को पाने की व्याकुलता मल्लिका में कहीं नज़र नहीं आती। अगर वह चाहती तो कालिदास के राज्य-कवि बनते ही विवाह का प्रस्ताव उसके सामने रख सकती थी। मगर वह ऐसा नहीं करती या उसने ऐसा नहीं किया।

मल्लिका तब भी व्याकुल नज़र नहीं आती जब उसे मालूम होता है कि कालिदास ने राजमहल में किसी और से विवाह कर लिया है, बल्कि उसे यही प्रतीत होता है कि शायद कालिदास की सृजनात्मकता के लिये ये सम्बन्ध अनिवार्य है और तो और उसे ये बात भी परेशान नहीं करती कि कालिदास अधिकतर समय वहाँ की वारागणाओं के पास व्यतीत करता है।

हाँ, मल्लिका को चोट तब पहुँचती है जब उसे पता चलता है कि कवि कालिदास अब कश्मीर का शासक बनने जा रहा है और उसे लगता है कि अब कवि कालिदास जिसे वह प्रेम करती है एक राजा कालिदास हो गया है और कालिदास के राजा होने में उसे कोई रूचि नहीं है और हो भी नहीं सकती।

गहरी चोट मल्लिका को तब लगती है जब उसे पता चलता है कि कालिदास ने सन्यास ले लिया है तो उसकी भावना चीत्कार उठती है और वह एक हक से बोल उठती है कि वह तब भी खुश नहीं थी जब कालिदास ने कश्मीर का शासन-भार संभाला था और अब तो वह सोच ही नहीं सकती थी कि कालिदास सन्यास ले लेगा –

“नहीं, तुम काशी नहीं गये। तुमने सन्यास नहीं लिया। मैंने इसीलिए तुम्हें यहाँ से जाने के लिये नहीं कहा था। मैंने इसलिए भी नहीं कहा था कि तुम जाकर कहीं का शासन-भार संभालो।

फिर भी जब तुमने ऐसा किया, मैंने तुम्हें शुभकामनाएँ दी  यद्यपि प्रत्यक्ष तुमने वे शुभकामनाएँ ग्रहण नहीं की।और “मैं यद्यपि तुम्हारे जीवन में नहीं रहीं, परन्तु तुम मेरे जीवन में सदा बने रहे हो।

मैंने कभी तुम्हें अपने से दूर नहीं होने दिया। तुम रचना करते रहे, और मैं समझती रही कि मैं सार्थक हूँ, मेरे जीवन की भी कुछ उपलब्धि है।
वास्तव में मल्लिका ने टूट-टूट कर भी कालिदास के बने रहने पर अपने आप को सार्थक माना है तभी वह ये हरगिज नहीं चाहती कि शेष जीवन कालिदास रचना किये बिना संन्यास ले कर व्यतीत करे।

ये कृति कालिदास की रचनात्मकता की प्रतीक तो है ही, साथ-साथ वास्तविक सांसारिक नज़रिया भी दर्शाती है, अम्बिका के चरित्र द्वारा। इधर, अम्बिका और विलोम वास्तविकता के प्रतीक हैं तो उधर भावना का प्रतीक मल्लिका है।

मल्लिका की भावना मल्लिका-विलोम विवाह के अर्थ से एक तरह से वास्तविकता के सामने घुटने टेक देती है। कालिदास भी इस धरातल पर अछूता नहीं है।

वह भावना से वास्तव की ओर एक ऐसे सफर पर निकल पड़ता है जो पुनः उसे कभी भी भावना में खोने का अवसर ही प्रदान नहीं करता तथा एक के बाद एक घटनाओं के चक्रव्यूह में इस तरह जकड़ता जाता है कि पीछे छूट चुके रास्ते स्वयं ही बन्द होते जाते हैं।

इधर कालिदास की विदुषी पत्नी प्रियंगु भी कालिदास का सम्पूर्ण प्रेम नहीं वर पाती और उन नक्शों को तलाश कर एकत्र करना चाहती है जहाँ उसके कुछेक अंश भावनात्मक स्तर पर मौजूद हैं मल्लिका के प्रति मोह या पर्वतीय भूमि के प्रति लगाव के रूप में।

वह मन ही मन मल्लिका के प्रति ईर्ष्या से आये अपने अन्दर के अभाव को मल्लिका को धनराशि देकर भरने की कोशिश भी करती है।

उधर, रंगिनी-संगिनी दो शोध-कर्ताएं है जो कालिदास जैसे कवि के जीवन-दर्पण को अपने शोध द्वारा देखने का प्रयास कर रही हैं।

उन्हें लगता है कि कालिदास ने जहाँ बैठकर कविता की रचना की होगी या कल्पना में जिस पर्वतीय भूमि का बार-बार बखान किया है वह भूमि अवश्य ही आम भूमि से हटकर विशेष रही होगी और ये यथार्थ भी समकालीन परिस्थितियों का ही प्रतिबिम्ब है।

मातुल का चरित्र एक तरह से पूरे समाज के बिम्ब के रूप में इस रचना में है। कालिदास के बारे में मातुल की जो प्रथम अंक में राय है वह भी समाज का आईना है।

तृतीय अंक में कालिदास का राजकवि होने के कारण मातुल का चापलूस व्यवहार भी समाज ही की तस्वीर है। स्वार्थ-सिद्धि की होड़ मातुल में व्याप्त है।
इस तरह से “आषाढ़ का एक दिन” ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया ‘नाटक है। इसमें ऐतिहासिक चरित्रों का प्रयोग केवल कथानक को और अधिक स्पष्ट करने हेतु है। कालिदास सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है।

JAI YADAV

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