औचित्य-सिद्धान्त- औचित्य-सिद्धान्त काव्य की आत्मा की खोज में ही क्षेमेन्द्र ने औचित्य-सिद्धान्त का प्रवर्तन किया।
उन्होंने अलंकार, गुण आदि काव्य के सभी सुन्दर तत्वों से अधिक महत्वपूर्ण औचित्य को माना और उसे ही रससिद्ध काव्य का स्थायी जीवन तत्व घोषित किया-“औचित्यं रस-सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् ।”
औचित्य के महत्व से पूर्ववर्ती आचार्य अपरिचित नहीं थे। आनन्दवर्धन ने पहले ही स्वीकार किया था कि रस-भंग का एकमात्र कारण अनौचित्य होता है एवं रस की रमणीयता का आधारभूत तत्व औचित्य है
इसके बावजूद उसे प्रस्थान रूप में प्रतिष्ठित किया जाना बाकी था जो क्षेमेन्द्र द्वारा पूरा किया गया। औचित्य की परिभाषा उपस्थित करते हुए क्षेमेन्द्र ने कहा कि जिसके अनुरूप जो होता है, उसे उसके लिए उचित माना जाता है और उचित का भाव ही औचित्य है।
इस परिणाम में ही सापेक्षता की धारणा अन्तर्निहित है। औचित्य को काव्य का जीवित तत्व मानने में क्षेमेन्द्र की युक्ति है कि चूंकि रस, अलंकार, गुण आदि सभी काव्य तत्वों के सौन्दर्य का आधारभूत औचित्य है, इसलिए औचित्य ही काव्य का जीवित तत्व अर्थात् प्राणतत्व है।
वे मानते हैं कि जिस काव्य में जीवित तत्व खोजने पर भी न मिले उसके अलंकार, गुण आदि सभी तत्व व्यर्थ हैं
अलंकार हों या गुण, वे औचित्य के अभाव में काव्य-सौन्दर्य को बढ़ा नहीं पाते परवर्ती आचार्यों ने औचित्य को प्रस्थान स्वीकार नहीं किया। कारण स्पष्ट है। जो अनुचित है वह असुन्दर है, यह तो माना जा सकता है।
किन्तु ऐसा नहीं माना जा सकता कि जो उचित है, वह सुन्दर भी होगा ही। अर्थात् औचित्य को काव्य-सौन्दर्य का सर्जक नहीं कहा जा सकता। औचित्य काव्य-सौन्दर्य का रक्षक भर होता है, सर्जक नहीं। यह औचित्य की एक बड़ी सीमा है।