मारवाड़ क्षेत्र की बोली होने के कारण इसका नाम ‘मारवाड़ी’ पड़ा है। इसका प्रतिनिधित्व या शुद्ध रूप जोधपुर के आसपास देखा जा सकता है।
यह जोधपुर, अजमेर, बीकानेर, जैसलमेर, मेवाड़, सिरोही तथा इनके आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है।
मारवाड़ी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। साहित्य की दृष्टि से राजस्थानी की सभी विभाषाओं में मारवाड़ी सबसे सम्पन्न है।
इसमें साहित्य तथा लोक-साहित्य पर्याप्त मात्रा में मिलता है।
साहित्य में इसका आरम्भिक रूप ‘डिंगल’ के रूप में देखने को मिलता है, जिसका प्रयोग काव्य-रचना के लिए किया जाता है। वैसे भी ‘डिंगल’ हिन्दी के विकास को स्पष्ट करने में एक कड़ी का काम करती है, इसी कारण, साहित्य-रचना में मारवाड़ी का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
करीब-करीब राजस्थानी का पूरा साहित्य ‘डिंगल’ में ही लिखा गया है। नरपति नाल्ह, मीराँबाई, बाँकीदास तथा पृथ्वीराज आदि इसके मुख्य कवियों में से हैं।
मारवाड़ी की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
1. ‘ल’ ध्वनि का उच्चारण अनेक बार ‘ल’ रूप में होता है, जैसे-‘बाल’ से ‘बाल’, ‘गाली’ से ‘गाली’ आदि।
2. ‘ऐ’ तथा ‘औ’ स्वरों का उच्चारण कई बार संयुक्त-स्वर ‘अइ’, तथा ‘अड’ रूप में भी मिलता है।
3. मारवाड़ी में दो विशेष ध्वनियाँ-‘ध’ तथा ‘स’ मिलती हैं, जो कि क्लिक (Click) ध्वनियाँ हैं। मारवाड़ी की मुख उपबोलियाँ-मेवाड़ी, सिरोही, ढुंढारी आदि हैं।