दोहा छंद की विशेषता

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    kunal
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        दोहा छंद-

        यह अर्धसममात्रिक छंद है। यह सोरठा का विपरीत होता है। इसमें चार चरण होते हैं।

        इसके विषम चरणों (पहले और तीसरे) में 13, 13 मात्राएं होती है। सम चरणों (दूसरे और चौथे) में 11, || मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अन्त में लघु पड़ना आवश्यक है एवं तुक भी मिलना चाहिए।

        उदाहरण

        कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।

        समय पाय तरूवर फरै, केतक सींचो नीर ।।

        दोहा छंद , छंद का एक प्रकार  है । 

        दोहा छंद का हिंदी साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

        चंद बरदाई, तुलसी, कबीर, सूर, रहीम, बिहारी आदि साहित्यकारों ने इसे अपनी काव्य रचना का आधार बनाया है।

        चाहे शृंगार रस का वर्णन करना हो अथवा नीतियों का बखान या फिर किसी के सुषुप्त मानस को जागृत करने के लिए उद्बोधन ही क्यों न देना हो प्रत्येक क्षेत्र में दोहा एक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रहा है।

        गिरधर कवि, घाघ आदि ने अपने नीतिपरक काव्य की रचना के लिए दोहा छंद को अपनाया है । गोस्वामी तुलसीदास की ‘दोहावली’ बिहारी की ‘बिहारी सतसई’ इसके ज्वलंत उदाहरण है ।

        दोहा श्रृंगारप्रिय कवियों की तथा भक्तिपरक रचनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बना है और नीतिपरक उपदेशात्मक भावों की अभिव्यक्ति का भी।

        दोहा आधुनिक युग में भी अर्वाचीन कवियों का प्रिय छंद है और अधिकांश कवियों द्वारा अपनी रचना का माध्यम बनाया गया है। इसके भाव पक्ष में आज के कवियों के मनोभावों के अनुसार विविधता के दर्शन होते हैं।

        दोहा छंद की इन्हीं विशेषताओं के कारण यह छंद इन पंक्तियों की लेखिका द्वारा भी सहज रूप में अपनाया गया है।

        प्रस्तुत पुस्तक में पाठकों को विभिन्न भावभूमि का दिग्दर्शन कराती दोहा रचनाओं का रसास्वादन करने का अवसर प्राप्त होगा।

         

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