दयानंद सरस्वती के नेतृत्व में आर्यसमाज के नाम से धार्मिक सुधार का आंदोलन शुरू हुआ। यह मूलतः पुनरुत्थानवादी आंदोलन था। इसके माध्यम से परंपरागत कट्टरपंथी हिंदुओं की कट्टर मान्यताओं का विरोध किया। मूर्ति पूजा और बाल विवाह का विरोध किया। साथ ही नीची जाति के हिंदुओं और स्त्रियों के स्तर को शिक्षा के प्रसार के माध्यम से ऊंचा उठाने का प्रयास किया किंतु इन सब गतिविधियों के पीछे मूल लक्ष्य था हिंदू धर्म को मजबूत करना। हिंदू साहित्य के इतिहासकारों ने आर्यसमाज के बारे में समग्रता में जिस रूप में विचार किया है उस पर गौर करना समीचीन होगा। इन इतिहासकारों ने देश के अन्य भागों में चल रहे सुधार आंदोलनों के प्रति दयानंद सरस्वती के दृष्टिकोण की उपेक्षा की। साथ ही, इसके वैचारिक स्वरूप की उपेक्षा की।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा कि ‘शिक्षा के आंदोलन के साथ-साथ ईसाई मत का प्रचार रोकने के लिए मत-मतांतर संबंधी आंदोलन देश के पश्चिमी भागों में चल पड़े। पैगंबरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगों को खिंचते देख स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और संवत 1920 से उन्होंने अनेक नगरों में घूम-घूम कर व्याख्यान देना आरंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये व्याख्यान देश में बहुत दूर तक प्रचलित साधु हिंदी भाषा में ही होते थे। स्वामीजी ने अपना सत्यार्थप्रकाश तो हिंदी या आर्यभाषा में प्रकाशित ही किया, वेदों के भाष्य भी संस्कृत और हिंदी दोनों में किए। स्वामीजी के अनुयायी हिंदी को ‘आर्यभाषा’ कहते थे।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य उदभव और विकास में आर्यसमाज की भूमिका का मूल्यांकन करते हुए लिखा कि ‘सामाजिक और धार्मिक विचारों की दुनिया में क्रांति ले आने वाली सबसे महत्वपूर्ण संस्था की स्थापना 1875 ई. में हुई। इस संस्था का नाम है आर्यसमाज। आर्यसमाज ने एक साथ कई मोर्चों पर धावा बोल दिया। इस संस्था ने अपने महान संस्थापक स्वामी दयानंद के नेतृत्व में रूढ़िवादी सनातनियों से, हिंदू धर्म पर आक्रमण करने वाले ईसाइयों से और देश में फैले हए अनेक धार्मिक संप्रदायों से एक साथ लोहा लिया। इन दिनों शास्त्रार्थों की धूम मच गई। उत्तर-प्रत्युत्तर से, कटाक्षों से और व्यंग्यों से सामयिक पत्र भरे रहते थे और हिंदी का भावी गद्य नवीन शक्तियों से सुसज्जित हो रहा था।19 द्विवेदीजी ने विस्तार से बाबू नवीनचंद्र राय और श्रद्धाराम फुलौरी की भूमिका का भी मूल्यांकन किया है। अंत में लिखा कि ‘उन्नीसवीं सदी के अंतिम चरण में आर्यसमाज नवीन सामाजिक चेतना का सबसे बड़ा पुरस्कर्ता था। उसने देश की प्रसप्त शक्ति को धक्का मार के जगा दिया। आर्यसमाज के प्रचार का ढंग उग्र और चिढ़ाने वाला था।