स्त्रीधन से आप क्या समझते हैं

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    smithi
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        Quizzer Jivtara
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          जो कुछ भी पति से एवं उसके सम्बन्धी से स्त्री को उसके विवाह के बाद मिलता है तथा जो कुछ माता और मातृ पक्ष के सम्बन्धियों से कन्या को मिलता है वह सब उसकी सम्पत्ति आज भी मानी जाती है और पहले भी मानी जाती थी। इसी को स्त्रीधन कहते हैं।

          स्त्रीधन इस शब्द से ही यह ज्ञात होता है कि यह कोई विशिष्ट प्रकार का धन था जो केवल स्त्रियों के लिए ही था।

          स्त्रीधन व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार होता है |

          वास्तव में, यह उनकी अपनी सम्पत्ति थी। इस पर उन्ही का अधिकार होता था।

          विवाह के अध्याय में हमने आसुर विवाह की चर्चा की गई है जिसमें लड़की को धन से खरीद कर विवाह किया जाता था।

          वह धन पिता अपने लिए नहीं रखता था परन्तु अपनी लड़की को ही लौटा देता था।

          चूँकि वह सम्पत्ति केवल लड़की को उसके पिता द्वारा दी जाती थी इसलिए उस पर लड़की का ही अधिकार होता था।

          वह उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति होती थी। इसलिए यही स्त्री-धन का प्रारम्भ है।

          इस प्रकार का धन लड़की के मर जाने पर उसकी लड़कियों में वितरित करने का विधान था क्योंकि स्त्री की प्यारी सन्तति यदि इस सृष्टि में कोई भी होती है तो वह लड़की होती है। इसलिए लड़की को ही, प्राथमिकता दी गई है।

          पर यदि उससे कोई सन्तान नहीं होता है दूसरा विवाह यदि उसका पति कर लेता है और तब उस धन को स्त्री के पिता को लौटा देने की आज्ञा दी गई है।

          जो कुछ भी लड़की की माँ, पिता तथा भाई उसे दें तथा जो कुछ भी पति विवाह के अवसर पर अपनी पत्नी को दे तथा वह सम्पत्ति जो पति के सम्बन्धी तथा लड़की के पिता के सम्बन्धी विवाह के समय अथवा उसके बाद स्त्री को दें वह सभी स्त्रीधन ही कहलाता है। इस प्रकार मनु ने स्त्रीधन की परिधि को विस्तृत कर दिया। परन्तु इसकी इससे भी अधिक विस्तृत परिधि विष्णु ने की।

          परन्तु इसकी इससे भी अधिक विस्तृत परिधि विष्णु ने की। उन्होंने मनु द्वारा वर्णित प्रकारों में कुछ और नवीन प्रकार जोड़ दिया। उनके अनुसार पुत्र जो कुछ भी अपनी माता को देता है तथा दूसरे सम्बन्धी जो कुछ भी स्त्री को देते हैं एवं पति जब अपनी पत्नी को छोड़ देता है और उसके पोषण के लिए जो कुछ भी देता है वह सभी स्त्री-धन कहलाता है। परन्तु बड़ी विचित्र बात यह है कि प्रेमियों से एवं शुल्क के रूप में जो कुछ भी स्त्री अर्जित करती है वह उसके स्त्रीधन में सम्मिलित नहीं किया जा सकता आगे चलकर विज्ञानेश्वर ने स्त्रीधन के प्रकारों के आगे ‘आदि’ शब्द जोड़ दिया है जो इसकी सीमा को और भी अधिक व्यापक बना देता है।

          जहाँ तक स्त्री धन पर स्त्री के अधिकार की बात है वैदिक साहित्य इस विषय में पूर्ण मूक है। स्मृति ग्रन्थ सदा पति की महत्ता को ही स्वीकार करते हैं। इसलिए वह भी यही अनुशासन देते हैं कि स्त्रियों को अपने स्त्रीधन के व्यय में भी पति की अनुमति लेनी चाहिए। पीछे के नैयायिकों ने स्त्रीधन स्त्रियों को अपने स्त्रीधन के व्यय में भी पति की अनुमति लेनी चाहिए। पीछे के नैयायिकों ने स्त्रीधन को दो भागों में विभक्त किया—सौदाकीय और असौदाकीय । सौदाकीय के अन्दर जो कुछ भी स्वेच्छापूर्वक दान स्वरूप लड़की के माता, पिता और पति उसे देते हैं वह सम्मिलित किया गया और दूसरे सम्बन्धियों तथा साधनों से प्राप्त स्त्रीधन को असौदाकीय कहा गया। सौदाकीय पर स्त्रियों का पूर्ण अधिकार बताया गया पर असौदाकीय पर नहीं। परन्तु कात्यायन ने यह स्वीकार किया है कि स्त्री अपने धन में प्राप्त अचल सम्पत्ति को भी अपनी इच्छानुसार बेच सकती है।

          नारद ने इस प्रकार का अधिकार प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास केवल स्त्रीधन के उसी भाग के ऊपर स्वीकार किया है जो चल है। इस प्रकार की मान्यता का कारण यह है कि पति का ही योगदान स्त्रीधन में सर्वाधिक होता है। पति सम्लिलित परिवार की सम्पत्ति से ही यह धन देता है, अतएव उसे दूसरे परिवार में हस्तान्तरित होने से रोकने के लिए यह प्रतिबन्ध लगाया गया |

          परन्तु कुछ भाग को अगर स्त्रीधन से निकाल दिया जाय तो शेष पर स्त्री का सम्पूर्ण अधिकार सभी शास्त्रकार स्वीकार करने के लिए एकमत हैं। कुछ भाग से यहाँ अभिप्राय है भूमि से। इसको छोड़ कर जो कुछ भी स्त्रीधन के अन्दर आता है उस पर किसी ने पति को यह अधिकार नहीं दिया है कि वह अपनी रुचि के अनुसार उसका उपयोग करे। यदि किसी कारण पति को आवश्यकता पड़ ही जाय कि अपने लिए वह स्त्रीधन के किसी भाग का उपयोग करे तो उसका धर्म है कि वह उस धन के भाग को सूद सहित लौटा दे। पर यह अधिकार केवल पति को ही दिया गया है। इसके साथ यह बन्धन भी है कि पति को चाहिए कि अपनी पत्नी से इस विषय में अनुमति ले ले। आगे यह भी कहा गया कि यदि किसी कारणवश पति उस धन को अपने जीवन काल में न लौटा सके तो उसके पुत्र का यह कर्तव्य हो जाता है कि उस धन को ब्याज के साथ अपनी माँ को लौटा दे |

          स्त्रीधन के उत्तराधिकारी कौन होते हैं ?

          इस समस्या के विचार के बाद ही स्त्रीधन के विषय में कोई निश्चित धारणा स्थापित की जा सकती है। याज्ञवल्क्य स्मृति में इस सम्बन्ध में कहा गया है कि यदि स्त्री मर जाय और उसके पीछे कोई सन्तान न हो तथा वह विवाह मान्यता प्राप्त विवाह की कोटि का हो तो उसका स्त्रीधन उसके पिता को लौटा दिया जायगा। यद्यपि आजकल याज्ञवल्क्य स्मृति का यह अनुशासन मान्य नहीं है क्योंकि सभी प्रकार के विवाह समाज में मान्य कहे जाते हैं। इसलिए आधुनिक विधान के अनुसार स्त्री के मरने पर उसका पति ही इसका उत्तराधिकारी होता है। परन्तु दूसरी परिस्थिति यह है जिसमें स्त्री के मरने के बाद यदि उसकी सन्तान हो तो सबसे पहले यह पुत्री को दिया जायगा । इसका कारण ऊपर ही बताया जा चुका है कि नारियों का सबसे अधिक स्नेह अपनी लड़कियों पर होता है तथा स्त्रीधन में गहना आदि अधिक रहता है, अतएव लड़कियों के लिए ही इसका अधिक महत्त्व होता है। इसीलिए आगे यह भी कहा गया कि यदि किसी स्त्री की कई लड़कियाँ हों तो उनमें से जो अविवाहित हों उनकी प्राथमिकता देनी चाहिए। अविवाहितों को इसलिए प्राथमिकता मिली कि उनका अभी विवाह होना है, अतएव माता की ओर से उसे कुछ स्त्रीधन में मिलना चाहिए। साथ ही, इसके द्वारा उसको कुछ आर्थिक सहायता भी मिलेगी क्योंकि उसे जीवन में उतरना है जब कि विवाहित लड़कियाँ जीवन में उतर चुकी हैं। परन्तु जब सभी लड़कियाँ विवाहिता हों तो जो जीवन-यापन में कठिनाई की अनुभूति करती हो उसे प्राथमिकता दी गई है। यदि ऐसा कोई जीवित न हो तो लड़की की लड़की को अर्थात् नतिनी को स्त्रीधन की अधिकारिणी बनने का अधिकार है। पर हमारा समाज पितृ प्रधान है अतएव इसका कारण ऊपर ही बताया जा चुका है कि नारियों का सबसे अधिक स्नेह अपनी लड़कियों पर होता है तथा स्त्रीधन में गहना आदि अधिक रहता है, अतएव लड़कियों के लिए ही इसका अधिक महत्त्व होता है। इसीलिए आगे यह भी कहा गया कि यदि किसी स्त्री की कई लड़कियाँ हों तो उनमें से जो अविवाहित हों उनकी प्राथमकता देनी चाहिए। अविवाहितों को इसलिए प्राथमिकता मिली कि उनका अभी विवाह होना है, अतएव माता की ओर से उसे कुछ स्त्रीधन में मिलना चाहिए। साथ ही, इसके द्वारा उसको कुछ आर्थिक सहायता भी मिलेगी क्योंकि उसे जीवन में उतरना है जब कि विवाहित लड़कियाँ जीवन में उतर चुकी हैं। परन्तु जब सभी लड़कियाँ विवाहिता हों तो जो जीवन-यापन में कठिनाई की अनुभूति करती हो उसे प्राथमिकता दी गई है। यदि. ऐसा कोई जीवित न हो तो लड़की की लड़की को अर्थात् नतिनी को स्त्रीधन की अधिकारिणी बनने का अधिकार है। पर हमारा समाज पितृ प्रधान है अतएव बाद के विचारकों ने यह मान्यता नहीं दी कि स्त्रीधन नारी उत्तराधिकारों में विभक्त किया जाय । गहने आदि को छोड़ कर शेष स्त्रीधन का उत्तराधिकारी पुत्र को ही बताया गया। मनु आदि विचारकों ने इसे और अधिक ग्राह्य बनाने के लिए विधान किया कि लड़के तथा लड़की दोनों का ही अधिकार स्त्रीधन पर होता है।

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