विद्यापति आदिकाल के कवि हैं
विद्यापति (1351-1439 ई.)– मैथिल कोकिल विद्यापति (1351-1439 ई.) का जन्म बिहार के दरभंगा जिले के ‘विसपी’ ग्राम में हुआ था।
वे मिथिला के राजा कीर्तिसिंह एवं शिवसिंह के आश्रय में रहे। उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश (अवहट्ट) और मैथिली तीनों भाषाओं में अपनी रचनाएँ लिखीं। उनकी रचनाओं का विवरण निम्न प्रकार है
(अ) संस्कृत ग्रन्थ-विद्यापति ने संस्कृत में 12 पुस्तकों की रचना की जिनमें प्रमुख हैं-शैव सर्वस्वसार, भू-परिक्रमा, पुरुष परीक्षा, गंगा वाक्यावली, वर्षकृत्य, पाण्डव विजय, दुर्गाभक्ति तरंगिणी और मणि मंजरी।
(ब) अवहट्ट ग्रन्थ-कीर्तिलता एवं कीर्तिपताका।
(स) मैथिली ग्रन्थ-पदावली।
संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी विद्यापति ने मैथिली में काव्य रचना करके अपार ख्याति प्राप्त की। विद्यापति की प्रतिभा बहुमुखी थी।
‘पुरुष परीक्षा’ से उनके नीतिशास्त्र ज्ञाता होने का पता चलता है तो ‘भू-परिक्रमा’ उनके भौगोलिक ज्ञान का बोध कराती है।
लिखनावली एवं विभागसागर नामक कृतियाँ यह बताती हैं कि उन्होंने स्मृति ग्रन्थों का अध्ययन किया था। ‘पदावली’ में उनकी कवित्व शक्ति का चरम उत्कर्ष है। पदावली की रचना संस्कृत कवि जयदेव के गीत-गोविन्द को आदर्श बनाकर की गयी है।
राधा-कृष्ण की प्रेमलीलाओं का चित्रण करके उन्होंने एक ओर तो हिन्दी गीत परम्परा का श्रीगणेश कर दिया दूसरी ओर भक्तिकाल के कृष्ण-काव्य की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
शृंगार के दोनों ही पक्षों संयोग और वियोग का चित्रण उन्होंने पदावली में किया है। नायिका का नख-शिख वर्णन, वयसन्धि निरूपण, सद्य:स्नाता के मनोहर चित्र एवं अभिसार के जो वर्णन पदावली में मिलते हैं, वे उन्हें श्रृंगारी कवि सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं तथापि उन्होंने महेशबानियाँ एवं नचारी लिखकर अपनी भक्ति-भावना का भी परिचय दिया है।
विद्यापति के सम्बन्ध में यह विवाद रहा है कि वे भक्त कवि हैं अथवा शृंगारी कवि। वस्तुत: परिमाण एवं प्रवृत्ति की दृष्टि से उनके काव्य में श्रृंगार भावना ही प्रमुख रही है। सद्य:स्नाता नायिका का एक चित्र देखिये जिसमें उस कामिनी की ओर देखते ही हृदय पर काम-वाणों का प्रहार हो रहा है
विद्यापति के पद गीतिकाव्य के तत्वों से युक्त हैं। उनमें संक्षिप्तता, गेयता आत्माभिव्यक्ति, प्रेम और सौन्दर्य के साथ-साथ भाषागत कोमलता भी देखी जा सकती है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी विद्यापति ने राधा-कृष्ण के प्रेम को निरूपण इतनी तन्मयता से किया है कि इन पदों को गाते हुए महाप्रभु चैतन्य भाव-विभोर होकर अपनी सुध-बुध खो देते थे। विद्यापति उच्च कोटि के कवि थे उन्हें मैथिल कोकिल, अभिनव जयदेव, कवि शेखर जैसी उपाधियाँ प्रदान की गई थीं।
उनका काव्य अलंकारों की इन्द्रधनुषी छटा से अलंकृत है, भाषा का माधुर्य उसमें चरम शिखर पर है और उसमें काव्यत्व के अन्य सभी उपादान भी विद्यमान हैं। परवर्ती हिन्दी साहित्य पर विशेषतः सूर के काव्य पर तथा रीतिकाल के शृंगार चित्रण पर विद्यापति का पर्याप्त प्रभाव देखा जा सकता है।