वास्कोडिगामा कालीकट किस वर्ष पहुंचा था

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      वास्कोडिगामा, कालीकट 20 मई वर्ष 1498 को पहुंचा था |

      वास्कोडिगामा का भारत अभियान जॉन-II द्वारा नियुक्त एडमिरल की मृत्यु हो जाने के कारण उसके पत्र वास्कोडिगामा को भारत अभियान की जिम्मेदारी सौंपी गई  ।

      उस समय तक जेरुशलम  समेत समूचे मध्य-पूर्व पर मुस्लिम शासकों का कब्ज़ा हो गया था।

      पूर्व (चीन, भारत और पूर्वी अफ़्रीक़ा) से आने वाले रेशम, मसालों और आभूषणों पर अरब और अन्य मुस्लिम व्यापारियों का कब्जा था , जो मनचाहे दामों पर इसे यूरोप में बेचते थे।

      वास्कोडिगामा इसी व्यापार के लिए भारत आना चाहता था ।

      डिगामा के नेतृत्व की क्षमता, दु:साहस तथा दृढ़ निश्चय के बारे में किसी को सन्देह नहीं था।

      जुलाई 1497 में चार जलपोतों के साथ उसने लिसबन से प्रस्थान किया। तीन माह की यात्रा के बाद उसने ‘केप ऑफ गुड होप’ के निकट अफ्रीकी तट को स्पर्श किया।

      सन् 1498 के प्रारम्भ में उसने पूर्वी अफ्रीका के मोजाम्बिक से एक पथ-प्रदर्शक को साथ लिया।

      मोम्बासा तथा मालिन्दी में उसका प्रेमपूर्वक स्वागत किया गया।

      यहीं पर वह कुछ भारतीय नाविकों से भी मिला।

      24 अप्रैल को उसने मालिन्दी से प्रस्थान किया तथा 15 मई को उसने प्रथम बार भारतीय तट का दर्शन किया।

      दो दिन पश्चात् वह कालीकट के तट पर पहुँच गया।

      वास्कोडिगामा ने अपने तेरह सहयात्रियों के साथ कालीकट के शासक (जमारिन) से भेंट कर उसे अपने सम्राट का पत्र प्रदान किया।

      कालीकट में उसे एक मन्दिर में ले जाया गया, जिसे उसने चर्च समझा। वहां देवी काली की मूर्ति को उसने पवित्र मेरी की मूर्ति समझ प्रार्थना भी की।

      उसने कालीकट के शासक को पुर्तगाली कपड़ा, मूंगा, शक्कर तथा शहद भेंट स्वरूप प्रदान किया।

      यद्यपि, समोरिन के लिए इन तुच्छ भेटों का कुछ महत्त्व नहीं था, परन्तु डिगामा को व्यापार की छूट प्रदान कर दी गई।

      इस समय मालाबार तट के राज्य हिन्दू शासकों द्वारा शासित थे।

      कालीकट का जमारिन उनका मुखिया था।

      समस्त विदेशी व्यापार अरबों अथवा स्थानीय मुस्लिम व्यापारियों के हाथ में था।

      इन्होंने पुर्तगाली व्यापार के प्रारम्भ को अपने लिए हितकर नहीं समझा।

      वास्कोडिगामा से तटकर के रूप में एक भारी धनराशि की मांग की गई।

      दो वर्षों पश्चात् 10 जुलाई 1499 को वह वापस लिसबन पहुँच गया।

      वास्कोडिगामा भारत से मसाले लेकर लौटा ।

      यूरोप में उस समय मसालों का महत्व सर्वाधिक था क्योंकि मसालों के उपयोग से मांस को  सरक्षित रखा जाता था ।

      वास्कोडिगामा जो मसाले लेकर गया था उसके वह मसाले 60 गुना अधिक दाम पर बेचता था ।

      वास्कोडिगामा का दूसरा अभियान : – सन् 1502 में एक बार पुन: वास्कोडिगामा को पन्द्रह जलपोतों के साथ भारत के दूसरे अभियान पर भेजा गया।

      इस अभियान दल के पीछे पाँच अन्य जलपोतों को व्यापारिक अभियान दल की सुरक्षा हेतु भेजा गया।

      वास्कोडिगामा ने किल्वा के शासक से शुल्क के रूप में भारी मात्रा में सोना प्राप्त किया।

      उसने कैब्रल के सहयात्रियों की हत्या का बदला लेने के लिए कालीकट के तट पर गोलाबारी भी की। पुर्तगालियों ने भारत के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने का मन बना लिया था।

      उन्होंने आने वाले वर्षों में सैन्य-दुर्गों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया।

      सन् 1505 में डाम फ्रांसिस्को डी अलमीडा को वाइसराय नियुक्त किया गया।

      उसने कोचीन, अन्जेदिवा, तथा कनानोर में दुर्गों का निर्माण कराया।

      अलमीडा ने 1509 ई. में एक मिस्त्री अभियान दल को भी पराजित किया।

      सन् 1509 में ही अलफ्रांसो डी अल्बुक्वेर्क को भारत का नया राज्यपाल नियुक्त किया गया।

      आगामी छ: वर्षों में पुर्तगाली साम्राज्य की नींव पूरब में डाल दी गई।

      पूरब के समस्त समुद्री व्यापार का संचालन सैन्य दुर्गों के एक छोटे से समूह द्वारा किया जाने लगा।

      इस प्रकार का प्रथम महत्त्वपूर्ण केन्द्र गोवा को बनाया गया, जिसे अल्बुक्वेर्क ने बीजापुर के सुल्तान से 1510 ई. में छीन लिया था। पुर्तगाली मुख्यालय का स्थान कालीकट के स्थान पर गोवा को बना दिया गया।

      दो वर्षों पश्चात् मलक्का पर पुर्तगाली अधिकार हो गया, जो पूर्व तथा सुदूर पूर्व के व्यापार का केन्द्र बन गया।

      सन् 1515 में आरमुज़ पर अधिकार कर पर्शिया की खाड़ी को भी प्रभाव क्षेत्र में ले लिया गया।

      इन वर्षों में पुर्तगाल की समृद्धि व प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। डाम मैनुएल एक निरंकुश सम्राट बन गया।

      परिणामस्वरूप, पुर्तगाल यूरोप का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यापारिक राष्ट्र बन गया।

       

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