वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का वर्णन किस ग्रंथ में मिलता है

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    kunal
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        वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का वर्णन ऋग्वेद ग्रंथ में मिलता है

        ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर मिलता है। यहाँ परोहित, राजन्य, विश तथा शूद्र शब्दों का उल्लेख बार-बार किया गया है।

        इसके दसवें मण्डल की एक ऋचा में वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। उसमें एक विराट पुरुष की कल्पना की गई है जो सहस्रों आँखों, पैरों और मँहवाला है। उसी के विभिन्न अंगों से विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति बताई गई है।

        उसके मुँह से ब्राह्मण, बाहु से राजन्य, उरुस् से वैश्य तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति की कल्पना की गई है। संस्कृत वाङ्गमय में उवर्णोत्पत्ति का सबसे पुरातन उल्लेख यहीं मिलता है। इसी आधार पर वर्ण-व्यवस्था की प्राचीनता ऋग्वैदिक काल से ही स्वीकार की जाती है।

        इसके पहले मण्डल की एक ऋचा में वर्णित है कि समाज में एक अभिजात वर्ग है, एक गौरव अर्जित करने वाला है, एक सम्पत्ति संचय करने वाला तथा एक सेवा करने वाला है। यहाँ क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र की ओर संकेत है। पुनः इस के आठवें मण्डल में तीन वर्षों ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य का उल्लेख मिलता है।

        यजुर्वेद में ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से चारों की उत्पत्ति बताई गई है। स्मृतियों, महाकाव्यों आदि में वर्ण की उत्पत्ति का जो भी विवरण मिलता है वह भी इस विवरण के उल्लेख के बाद ही प्राप्त होता है।

        पुरुष-सूक्त के सम्बन्ध में ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है कि वर्णों की उत्पत्ति विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों से हुई। यहाँ विराट् पुरुष को ही सृष्टि माना गया है, जो कुछ हुआ है और जो कुछ भविष्य में होने वाला है। इसी सन्दर्भ में आगे यह भी कहा गया है कि उसी के अंगों से सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, अन्तरिक्ष दिशाएँ आदि भी उत्पन्न हुई हैं।

        यहाँ विशिष्ट अंगों से विशिष्ट वर्णों की उत्पत्ति उस वर्ण में उस अंग विशेष के गुणों की स्थापना तथा उस गुण के आधार पर उसके कर्म के निर्धारण का संकेत करता है। वर्णों के गुण-धर्म से सम्बन्धित अंगों के गुणों की तुलना करने पर इसकी सार्थकता स्वयं स्पष्ट हो जाती है।

        मुख शरीर का सबसे उन्नत अंग है। यहीं से हम बोलते हैं तथा विचारते हैं। ये सभी कार्य ब्राह्मणों के कहे गए हैं। अतएव ब्राह्मणों की उत्पत्ति मुँह से बताई गई है ।

        इसी प्रकार भुजा का गुण है रक्षा करना एवं गौरव प्राप्त करना । क्षत्रियों के लिए यही धर्म निर्धारित किया गया है। अतएव उनकी उत्पत्ति भुजा से कही गई है।

        उरुओं का कार्य शरीर के लिए लाभ अर्जित करना है। इसी से इस स्थान से वैश्यों की उत्पत्ति बताई गई है तथा उन्हें लाभ अर्जित करने वाला कहा गया है। पैर का कार्य है आज्ञा पालन एवं सेवा करना। शूद्रों के इसी गुण-धर्म के कारण उनकी उत्पत्ति पैर से बताई गई है। .

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