यह एक प्रकार की बागानी कृषि है, जो ऊष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है तथा इसमें विशेष रूप से केला, कॉफी, कोको, कपास, खजूर का तेल, तिल, मसाले. गन्ना एवं चाय आदि की फसलों का उत्पादन किया जाता है। रोपण कृषि की मुख्य विशेषताएं नीचे बताया गया है |
रोपण कृषि की 5 विशेषताएं निम्नलिखित है :-
(1) विशाल भू-क्षेत्र कृषि : रोपण कृषि, सामान्यतया एक बड़े भू-क्षेत्र में की जाती है, जैसे – 40 हेक्टेयर (100 एकड़) या उससे अधिक का भू-क्षेत्र। बागानों के आकार में बहुत अधिक क्षेत्रीय भिन्नताएँ पाई जाती हैं। उदाहरणतः, श्रीलंका में किसी बाग को कानूनी तौर पर रोपण कृषि की श्रेणी में आने के लिए कम-से-कम 10 एकड़ का होना चाहिए। हिन्देशिया के सारावाक द्वीप में 1,000 एकड़ के बागान को रोपण कृषि की श्रेणी में रखा जाता है। मलेशिया में अधिकांश रबड़ के बागान 100 एकड़ के हैं। दूसरी ओर लाइबेरिया हरबल (Herbal) पर स्थित फायरस्टोन कम्पनी का रबड़ का बाग 1.36,000 एकड़ पर विस्तृत है। भारत में किसी भी फसल के बागान अधिक बड़े नहीं हैं। चाय भारत की प्रमुख बागानी फसल है जिसके बागान 400 से 600 एकड़ तक पाए जाते हैं।
(2) एक फसल की कृषि : रोपण कृषि के अन्तर्गत बड़े बागानों में केवल एक ही फसल उगाई जाती है। यद्यपि रोपण कृषि के क्षेत्रों की उष्ण व आर्द्र जलवायु चाय, कहवा, रबड़, नारियल, कोको, केला आदि फसलों के लिए अनुकूल होती है तथापि उनकी कृषि एक ही बाग में नहीं की जाती। एक ही प्रदेश में कई वस्तुओं के बागान साथ-साथ पाए जाते हैं। यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है जो रोपण कृषि को जीवन-निर्वाह कृषि से अलग करती है। एक प्रदेश में केवल एक ही फसल की रोपण कृषि भी होती है। मलेशिया में रबड, ब्राजील में कहवा तथा भारत की असम घाटी में चाय की कृषि ‘एक-फसली कृषि’ (MonoCulture) के उदाहरण हैं।
(3) वैज्ञानिक प्रबंधन : यहां विशेष प्रकार के दक्ष श्रमिकों की आवश्यकता होती है एवं जहां तक संभव हो मशीनों का प्रयोग किया जाता है, उर्वरकों, कीटनाशकों आदि का उपयोग भी प्रचूरता से होता है।
(4) भारी धन निवेश: इन बागानों की स्थापना एवं प्रबंधन के लिये भारी धन की आवश्यकता होती है। कई बागान ऐसे हैं, जिनमें फसल पकने के लिये कई वर्षों का समय लगता है (रबर पकने के लिये 6 वर्ष का, काफी 5 वर्ष का एवं पाम आयल 3 वर्ष का समय लेती है) तथा इस अवधि मे इन फसलों से किसी प्रकार का धन प्राप्त नहीं होता है। इस समय इन कार्यों में नियोजित तकनीकी एवं प्रशासकीय अमले पर काफी धन व्यय करना पड़ता है।
(5) मौसमी खतरे : यहां उगाई जाने वाली फसलों, जैसे-रबर, कोको एवं आयल पाम के लिये उच्च तापमान एवं उच्च आर्द्रतायुक्त मौसम की आवश्यकता होती है। ये दशायें मानवीय कार्य के लिये उपयुक्त नहीं होती।
(6) बीमारियां एवं कीड़े-मकोड़े:- इन बागानों की जलवायवीय दशायें होती हैं, जहां विभिन्न प्रकार के कीड़े- मकोड़ों के पनपने की अधिक संभावनायें होती हैं, फलत: यहां काम करने वाले लोगों को विभिन्न प्रकार की बीमारियों की आशंका होती है।