मिताक्षरा
विज्ञानेश्वर की याज्ञवल्क्य स्मृति का एक टीका है । जिसका अभिप्राय रक्त संबंध से लिया है । जिसमे उत्तराधिकारियों का क्रम निश्चित किया है ।
मिताक्षरा का प्रणयन काल १२वीं शताब्दी से पूर्व हआ था। याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा टीका स्मृति ग्रंथों में अद्वितीय है।
पी.वी. काणे ने मिताक्षरा को केवल याज्ञवल्क्य स्मृति का एक भाष्य मात्र ही नहीं अपितु यह स्मृति संबंधी निबंध माना है। इसमें बहुत सी स्मृतियों के उद्धरण संकलित हैं वे परमहंस के शिष्य थे।
मिताक्षरा का अभिप्राय रक्त संबंध से लिया है। चूंकि बालक में माता एवं पिता दोनों का रक्त मिला होता है।
विज्ञानेश्वर ने उत्तराधिकारियों का क्रम निम्न निश्चित किया है:-
प्रथम पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र सह उत्तराधिकारी हैं।
इसके बाद धर्मपरायण विधवा तब लड़की का विधान किया गया है उसके बाद विवाहिता को पुनः यदि किसी की लड़कियाँ विवाहित हों तो उनमें से जो गरीब हो सबसे पहले उसी का स्थान माना गया है इसके बाद लड़की के लड़के को स्थान दिया गया है और तब माता और बाद में पिता को माता और पिता के इस क्रम को पहले बताया जा चुका है।
भाइयों में सबसे पहले अपना भाई तब दूसरे के पुत्र को जिसे अपनाकर भाई बनाया गया हो फिर भाई के लड़के, पिता की माता, पिता के पिता, पिता के भाई आदि को क्रमशः स्वीकार किया गया।
अन्त में गोत्रज और उसके अभाव में समीपस्थ सम्बन्धी तथा उसके भी अभाव में बन्धुज उत्तराधिकारी हो सकते हैं।
चूंकि भारतीय परिवार पितृ प्रधान है और यहाँ संयुक्त परिवार प्रणाली है इसलिए विज्ञानेश्वर ने कहा है कि पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकारी इस प्रकार होना चाहिए कि सम्पत्ति पिता के ही परिवार में बना रहे। इसलिए समीपस्थ सम्बन्धियों को ही प्राथमिकता दी गई है।
चूंकि लड़के के लिए पिता का रक्त भाई की अपेक्षा अधिक समीप होता है इसलिए भाई की अपेक्षा पिता को ही प्राथमिकता दी गयी है। पर इन्होंने कुछ ऐसे संबंधियों को स्थान दिया है जो केवल सगोत्री हैं। जैसे माता की बहन का लड़का, पिता की बहन का लड़का आदि।
दूसरे इन्होंने पैतृक उत्तराधिकारियों की प्रधानता का उल्लेख किया है पर स्वयं माता की बहन के लड़के और पिता की बहन के लड़के को पहला स्थान दिया है न कि माता के भाई के लड़के और पिता के भाई के लड़के को। पुनः इसमें माता के भाई को छोड़ दिया गया है जो माता के भाई के पुत्र की अपेक्षा समीपी होता है।
अन्त में, बन्धुज को उत्तराधिकारी बताकर इन्होंने सगोत्रियों को भी मान्यता दे दी है। अब सबसे बड़ी समस्या यह उठती है कि विज्ञानेश्वर की व्याख्या में पुत्र शब्द का अर्थ बताते हुए कपाडिया ने पुत्र और पौत्र का अर्थ बताया है जब कि काणे ने पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र तक को इसके अन्तर्गत परिगणित किया है।
आगे चलकर नीलकण्ठ तथा नन्द पण्डित ने विज्ञानेश्वर को ही स्वीकार किया पर कुछ अन्तर के साथ । नीलकण्ठ ने सह उत्तराधिकारियों को तीन पीढ़ी तक माना है। इसी प्रकार अन्य सूक्ष्म अन्तर भी इनमें पाये गये हैं।