भारत में उच्च न्यायालय द्वारा जारी किए जा सकने वाले विभिन्न रूपों की संक्षेप में चर्चा करें

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      भारत में उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय  5 प्रकार से रिट  जारी कर सकता है 

      भारत में उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32 के तहत) एवं उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226 के तहत) न्यायादेश जारी कर सकते हैं।

      ये हैं-

      1.बंदी प्रत्यक्षीकरण,

      2.परमादेश,

      3.प्रत्यादेश,

      4.उत्प्रेषण

      5. अधिकार पृच्छा

      संसद (अनुच्छेद 32 के तहत) किसी अन्य न्यायालय को भी इन न्यायादेशों को जारी करने का अधिकार दे सकती है. हालांकि ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनी। केवल उच्चतम एवं उच्च न्यायालय ही न्यायादेश जारी कर सकते हैं कोई अन्य न्यायालय नहीं।

      1950 से पहले केवल कलकत्ता, बंबई एवं मद्रास उच्च न्यायालय को ही न्यायादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त था। अनुच्छेद 226 सभी उच्च न्यायालयों को न्यायादेश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।

      ये न्यायादेश अंग्रेजी कानून से लिए गए हैं। जहां इन्हें ‘विशेषाधिकार न्यायादेश‘ कहा जाता है। इन्हें राजा द्वारा जारी किया जाता था जिन्हें अब भी ‘न्याय का झरना‘ कहा जाता है। आगे चलकर उच्च न्यायालय ने न्यायादेश जारी करना प्रारंभ कर दिया एवं ब्रिटिश लोगों के अधिकार व स्वतंत्रता का यह असाधारण उपचार था।

      उच्चतम न्यायालय के न्यायादेश संबंधी न्यायिक क्षेत्र उच्च न्यायालय से तीन प्रकार से भिन्न हैं

      1. उच्चतम न्यायालय केवल मूल अधिकारों के क्रियान्वयन को लेकर न्यायादेश जारी कर सकता है जबकि उच्च न्यायालय इनके अलावा किसी और उद्देश्य को लेकर भी इसे जारी कर सकते हैं।

      किसी अन्य उद्देश्य’ शब्द का मतलब किसी सामान्य कानूनी अधिकार के संबंध में भी है। इस तरह उच्चतम न्यायालय के न्यायादेश संबंधी
      न्यायिक अधिकार उच्च न्यायालय से कम शक्तिशाली है।

      2. उच्चतम न्यायालय किसी एक व्यक्ति या सरकार के खिलाफ न्यायादेश जारी कर सकता है। जबकि उच्च न्यायालय सिर्फ संबंधित राज्य के व्यक्ति या अपने क्षेत्र के राज्य को या यदि मामला दूसरे राज्य से संबंधित हो तो वहां के खिलाफ ही जारी कर सकता है इस तरह क्षेत्रीय न्यायक्षेत्र, न्यायादेश जारी करने के संबंध में उच्चतम न्यायालय का ज्यादा विस्तृत है।

      3. अनुच्छेद 32 के तहत उपचार अपने आपमें मूल अधिकार है। उच्चतम न्यायालय अपने न्यायादेश मामले को नकार नहीं सकता। दूसरी तरफ अनुच्छेद 226 के तहत उपचार के संबंध में उच्च न्यायालय अपने न्यायादेश संबंधी न्याय क्षेत्र के क्रियान्वयन को नकार सकता है।

      अनुच्छेद 32 उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों के संबंध में उच्च न्यायालय को प्राप्त अनुच्छेद 226 के तहत शक्ति स्थान नहीं है। इस तरह उच्चतम न्यायालय को मल अधिकारों का रक्षक एवं गारंटी देने वाला बनाया गया है।

      अब हम अनुच्छेद 32 एवं 226 में उल्लिखित विभिन्न प्रकार के न्यायादेशों के अभिप्राय एवं अवसर (scope) को समझेंगे

      1.बंदी प्रत्यक्षीकरण:-   इसे लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘इकाई का होना’। यह उस व्यक्ति के संबंध में न्यायालय द्वारा जारी आदेश है जिसे दूसरे द्वारा हिरासत में रखा गया है, उसे इसके सामने प्रस्तुत किया जाए।

      तब न्यायालय मामले की जांच करता है, यदि हिरासत में लिए गए व्यक्ति का मामला अवैध है तो उसे स्वतंत्र किया जा सकता है। इस तरह यह किसी व्यक्ति को जबरन हिरासत में रखने के खिलाफ है।

      बंदी प्रत्यक्षीकरण का न्यायादेश दोनों के खिलाफ जारी किया जा सकता है चाहे वह सार्वजनिक प्राधिकरण हो या व्यक्तिगत।

      यह न्यायादेश तब जारी नहीं किया जा सकता जब यदि

      (i) हिरासत कानून सम्मत है।

      (ii) कार्यवाही किसी विधानमंडल या न्यायालय की अवमानना के तहत हुई हो

      (iii) न्यायालय के द्वारा हिरासत एवं

      (iv) हिरासत न्यायालय के न्यायक्षेत्र से बाहर हुई हो।

      2.परमादेश:- इसका शाब्दिक अर्थ है ‘हम नियंत्रण करते हैं। यह एक नियंत्रण है, जिसे न्यायालय द्वारा सार्वजनिक अधिकारियों को जारी किया जाता है ताकि उनसे उनके कार्यों और उसे नकारने के संबंध में पूछा जा सके।

      इसे किसी भी सार्वजनिक इकाई, परिषद, अधीनस्थ न्यायालयों, पंचाटों या सरकार के खिलाफ समान उद्देश्य के लिए जारी किया जा सकता है।

      परमादेश न्यायादेश जारी नहीं किया जा सकता-

      (i) निजी व्यक्तियों या इकाई के खिलाफ

      , (ii) ऐसे विभाग जो गैरसंवैधानिक हैं,

      (iii) जब कर्त्तव्य स्वैच्छिक हो, जरूरी नहीं,

      (iv) ठेकेदारी उत्थान,

      (v) भारत के राष्ट्रपति या राज्यों के राज्यपालों के खिलाफ

      (vi) उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जो नागरिक क्षमता में कार्यरत हैं।

      3.प्रतिषेध:-  इसका शाब्दिक अर्थ ‘रोकना’। इसे किसी उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या पंचाटों को उच्च न्यायिक कार्यों के लिए जारी किया जाता है जिन पर कार्यवाही नहीं हो रही है। जिस तरह परमादेश सीधे सक्रिय रहता है, प्रतिशेध सीधे सक्रिय नहीं रहता।

      प्रतिषेध संबंधी न्यायादेश सिर्फ न्यायिक एवं अल्प न्यायिक प्राधिकरणों के विरुद्ध ही जारी किए जा सकते हैं। यह प्रशासनिक प्राधिकरणों, विधायी इकाइयों एवं निजी व्यक्तिगत या इकाइयों के लिए उपलब्ध नहीं है।

      4.उत्प्रेषण:-  इसका शाब्दिक अर्थ ‘प्रमाणित होना’ या ‘सूचना देना’ है । इसे एक उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या पंचाटों को या लंबित मामलों के स्थानांतरण को सीधे या पत्र जारी कर किया जाता है।

      इसे अतिरिक्त न्यायिक क्षेत्र या न्यायिक क्षेत्र की कमी या कानून में खराबी के आधार पर जारी किया जा सकता है। इस तरह प्रत्यादेश से हटकर जो कि केवल निवारक है; उत्प्रेक्षण निवारक एवं सहायक दोनों तरह का है।

      अभी हाल तक उत्प्रेक्षण का न्यायादेश सिर्फ न्यायिक या अल्प न्यायिक प्राधिकरणों के खिलाफ ही जारी किया जा सकता था, प्रशासनिक इकाइयों के खिलाफ नहीं, हालांकि 1991 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि उत्प्रेक्षण व्यक्तियों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक प्राधिकरणों के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है।

      प्रतिषेध की तरह उत्प्रेषण की विधानमंडलीय इकाइयों, एवं निजी वैयक्तिक या इकाइयों के विरुद्ध उपलब्ध नहीं है।

      5.अधिकार पृच्छा:- शाब्दिक संदर्भ में इसका अर्थ किसी ‘प्राधिकृत या वारंट के द्वारा’ है। इसे न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक कार्यालय में दायर अपने दावे को जांच के लिए जारी किया जाता है।

      न्यायादेश को पूरक सार्वजनिक कार्यालयों के मामले में तब जारी किया जा सकता है जब उसका निर्माण संवैधानिक हो। इसे मंत्रित्व कार्यालय या निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता।

      अन्य चार न्यायादेशों से हटकर इसे किसी भी रुचिकर व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है न कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा।

       

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