भारतीय समाचार पत्रों में अंग्रेजी अधिकारियों के विरुद्ध निर्भिकता से समाचार प्रकाशित किये जाते थे।
वायसराय लॉर्ड लिटन के कार्यकाल में 14 मार्च 1878 को वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट की घोषणा की गई।
इस कानून के अनुसार सरकार को यह अधिकार मिल गया कि वह भारतीय भाषा के किसी पत्र के सम्पादक, प्रकाशक अथवा मुद्रक से यह इकरारनामा ले सकेगी कि वह अपने समाचार पत्र में कोई ऐसी बात प्रकाशित नहीं करेगा जिससे जनता में सरकार के विरुद्ध घृणा अथवा द्रोह की भावना फैल सकती हो।
यदि कोई प्रकाशक अथवा सम्पादक इस कानून के अन्तर्गत कार्य नहीं करेगा तो उसे पहली बार चेतावनी दी जायेगी और दूसरी बार में पत्र की सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली सामग्री का प्रकाशन के पूर्व ही सरकारी अधिकारियों द्वारा सेंसर करने का प्रावधान भी रखा गया।
इस कानून ने भारतीय समाचार पत्रों की स्वतंत्रता पर गहरी चोट की।
1880 ई. में इंग्लैण्ड में उदार दल की विजय हुई और ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बने।
वे वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के विरोधी थे।
उन्होंने लॉर्ड रिपन को भारत का गर्वनर जनरल बनाकर भेजा।
लॉर्ड रिपन भारतीयों के प्रति सहानूभूति रखते थे।
1881 ई. में भारत सचिव ने भारत सरकार को लिखा कि ऐसा कानून बनाये रखने का कोई लाभ नहीं है जिससे समस्त वर्गों को समान अधिकार न मिल सकें।
लार्ड रिपन ने 7 दिसम्बर 1881 को इस कानून को रद्द कर दिया।
इस अवसर पर दिये गये एक भाषण में उन्होंने कहा- ‘मुझे बड़ा संतोष है कि मेरे समय में ऐसे कानून को रद्द किया जा रहा है।
अब केवल डाकखाने को यह अधिकार रह गया कि वह ऐसी सामग्री का वितरण करने से मना कर सकता था जिससे भेदभाव अथवा अशान्ति फैलती हो।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट की समाप्ति के पश्चात् भारतीय पत्रकारिता में और विकास हुआ।