चंद्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त था। समुद्रगुप्त को इतिहासकार स्मिथ ने ‘भारत का नेपोलियन‘ कहा है।
समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से उसके विजय अभियानों की जानकारी मिलती है, इस प्रशस्ति की रचना हरिषेण ने की थी।
इसका वास्तविक लक्ष्य | धरणिबंध (पृथ्वी को बांधना) था। अपने विजय अभियानों के उपलक्ष्य में इसने अश्वमेघ यज्ञ करवाया।
समुद्रगुप्त को वीणा वादन करते हुये भी दिखाया गया है जिसके कारण इन्हें ‘कविराज’ की उपाधि भी प्रदान की गयी है।
इसके अतिरिक्त इन्होंने लिच्छवि दौहित, सर्वराजोच्छेदता, अप्रतिरथ, परशु जैसी उपाधियाँ ग्रहण की।
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