वह शौरसेनी और मागधी के मेल से बनी थी और अर्द्ध-मागधी कहलाती थी।
जैन तीर्थकर महावीर इसी अर्द्ध-मागधी में जैन-धर्म का उपदेश देते थे ।
पुराने जैन-ग्रन्थ भी इसी भाषा में हैं।
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