शौरसेनी प्राकृत का शूरसेन प्रदेश (मथुरा एवं उसके आस-पास के क्षेत्र) में व्यवहार होता था । इस तरह यह पश्चिमी हिन्दी बोलियों की जननी कही जा सकती है। मध्य देश की भाषा होने के कारण यह संस्कृत के अधिक निकट है। अपने समय में इसका प्रयोग अन्य प्राकृतों की अपेक्षा अधिक हुआ। संस्कृत नाटकों में स्त्री एवं मध्यम वर्ग के पात्रों, विदूषक आदि की भाषा शौरसेनी प्राकृत ही रही। इसमें दो स्वरों के मध्य पायी जाने वाली त और थ ध्वनियाँ क्रमशः द और ध में परिणत हो गयीं, किन्तु मध्य की द और ध ध्वनियाँ सुरक्षित रहीं, जैसे- गच्छति गच्छदि, कथहि कोहि जलद् > जलदो। क्ष के स्थान पर शौरसेनी में ‘क्ख’ प्रयुक्त हुआ है। संस्कृत के संयुक्त व्यंजन के पालि में द्वित्वीकरण की जो प्रवृत्ति थी, वह अब सरलीकरण की ओर दिखाई दी।