दल बदल कानून को समझाइए

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        दल-बदल कानून: – भारतीय राजनीति में दल बदल की राजनीति राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन गई है, जनता के चुने हुए सांसद तथा राज्य विधान मण्डलों के सदस्य निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए आए दिन अपने दल को छोड़कर दूसरे दल में चले जाते हैं.

        इस राजनीतिक अनैतिकता ने सारे वातावरण को विषाक्त बना दिया है.  आठवीं लोक सभा चुनाव के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 24 जनवरी, 1985 को 52वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया.

        30 जनवरी को लोक सभा तथा 31 जनवरी, 1985 को राज्य सभा द्वारा पारित होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ‘दल-बदल अधिनिमय‘ अस्तित्व में आया. इस अधिनियम के द्वारा अनुच्छेद 101, 102, 190 तथा 191 में परिवर्तन किया गया और संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई.

        यह संशोधन 1 मार्च, 1985 से लागू हुआ. इस संशोधन में व्यवस्था की गई कि संसद या राज्य विधान मण्डल के सदस्य की सदस्यता निम्नलिखित परिस्थितियों में समाप्त हो जाएगी

        (1) यदि कोई सदस्य सदन में पार्टी के हिप के विरुद्ध मतदान करता है या अनुपस्थित रहता है, परन्तु ऐसे सदस्य की सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा यदि 15 दिन के अन्दर सम्बन्धित दल उस सदस्य को उपर्युक्त आचरण के लिए क्षमा कर दे.

        ii) यदि कोई सदस्य उस दल से, जिसके टिकट पर निर्वाचित हुआ था. स्वेच्छा से त्यागपत्र दे देता है.

        (iii) यदि कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव के बाद कोई राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ले.

        (iv) यदि मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ले.

        इसके कुछ अपवाद हैं

        (i) 52वें संविधान संशोधन के दल-बदल अधिनियम के पेरा (3) में लिखा है कि यदि किसी विधान मण्डल या संसद के 113 या अधिक सदस्यों ने उस दल से अलग होकर किसी नए दल का निर्माण कर लिया हो.

        (ii) इस अधिनियम के पैरा (4) में लिखा है कि यदि दो या अधिक विधान मण्डल दल अपनी कुल सदस्यता के 2/3 बहुमत से विलय का निर्णय ले.

        (iii) जब संसद तथा विधान सभा का कोई सदस्य अध्यक्ष के पद पर अपने चुनाव से तुरन्त पहले दलीय निष्पक्षता की दृष्टि से अपने दल से त्यागपत्र देता है.

        यद्यपि दल-बदल रोकने के लिए 1985 में किया गया 52वाँ संविधान संशोधन निश्चय ही एक प्रशंसनीय कदम था, लेकिन इसके पैरा (3) और (4) में दी गई छूट ने बाद में दल-बदल के स्वरूप को और भी विकृत कर दिया. यह कानून केवल व्यक्तिगत दल-बदल को रोकने में सक्षम रहा. सामूहिक दल-बदल पर यह कोई प्रभाव न डाल सका.

        अतः इसके परिणामस्वरूप 16 दिसम्बर, 2003 को संसद में 97वाँ संविधान संशोधन विधेयक पारित किया गया. इस विधेयक के द्वारा न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामूहिक दल-बदल को भी असंवैधानिक घोषित कर दिया गया. इस संशोधन द्वारा मंत्रिपरिषद के आकार को सदन की कुल सदस्य  सख्या का 15% तक सीमित करने का प्रावधान है. साथ ही किसी भी मंत्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 12 होगी.

        इस संशोधन द्वारा दसवीं अनुसूची की धारा तीन को समाप्त कर दिया गया है. जिसमें किसी पार्टी के एक-तिहाई सदस्य एक साथ दल-बदल कर सकते हैं.

        नए कानून के अनुसार यदि कोई निर्वाचित प्रतिनिधि अपने दल को छोड़कर किसी दूसरे दल में सम्मिलित होता है, तो उसकी सदस्यता तत्काल समाप्त हो जाएगी और वह कोई लाभ का पद भी नहीं प्राप्त कर सकेगा.

        उसे नए दल के चुनाव चिह्न पर पुनः निर्वाचित होना पड़ेगा, लेकिन यदि किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को कोई राजनीतिक दल निलम्बित या निष्कासित कर देता है, तो उस स्थिति में यह नियम लागू नहीं होगा.

        तथापि दल-बदल कानून के बावजूद  निजी स्वार्थ वश आयाराम-गयाराम संस्कृति कमजोर नहीं हुई.

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