छत्तीसगढ़ मे हुए नरबलि विद्रोह को मेरिया विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है
मेरिया विद्रोह (1842 से 1863 ई.) दंतेवाड़ा की आदिम जातियों ने 1842 ई. में आंग्ल-मराठा शासन के खिलाफ आत्मरक्षा के निमित्त, अपनी परम्परा और रीति-रिवाजों पर होने वाले आक्रमणों के विरुद्ध विद्रोह किया था.
दंतेवाड़ा बस्तर का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है, जहाँ नागों और काकतियों की अल्पकालीन राजधानी थी. यहाँ दंतेश्वरी मन्दिर में प्रचलित नरबलि का एक जघन्य संस्कार इस विद्रोह का प्रमुख कारण था.
ग्रिब्सन के अनुसार “ब्रिटिश सरकार ने बस्तर में मेरिया या नरबलि को समाप्त करने के लिए बस्तर के राजा भूपालदेव को आदेश दिया था.”
नरबलि को रोकने के लिए नागपुर के भोंसला राजा ने एक सुरक्षा टुकड़ी बाईस वर्षों ( 1842 से 1863 ई.) तक के लिये दंतेवाड़ा के मन्दिर में नियुक्त की थी. दंतेवाड़ा के आदिवासियों ने इसे अपनी परम्पराओं पर बाहरी आक्रमण समझा और विद्रोह कर दिया.
अंग्रेजों ने दंतेवाड़ा मन्दिर में प्रचलित नरबलि प्रथा को दबाने के लिए दलगंजन सिंह को हटाकर वामनराव को बस्तर का दीवान नियुक्त किया. दीवान वामनराव के सुझाव पर रायपुर के तहसीलदार शेर खाँ को नरबलि पर नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त किया गया.
आदिवासियों में पुनः विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी हिडमा मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने माँग की कि दंतेवाड़ा से सैनिक हटा लिए जाएँ. दीवान वामनराव के आदेश पर शेर खाँ और इसके साथियों ने आदिवासियों पर भयंकर जुल्म किए.
अंग्रेजों ने आदिवासियों के घरों को जला दिया और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया. अंग्रेज मेरिया विद्रोह को दबाने में सफल रहे, किन्तु इस विद्रोह के कारण हमेशा के लिए आदिवासियों और अंग्रेजों के मध्य शत्रुता रही.