संकुचित तथा व्यापक दोनों अर्थों में ‘काम’ के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। संकुचित अर्थ में ‘काम’ यौन सम्बन्धी सख है। इस सख की प्राप्ति की इच्छा से ही पति-पत्नी का शरीर-सम्बन्ध स्थापित होता है जिससे सन्तानों की उत्पत्ति होती है और सन्तानों की उत्पत्ति वंश तथा समाज के अस्तित्व व निरन्तरता के लिए
परमावश्यक है। व्यक्ति भले ही मर जाए, पर पति-पत्नी में यौन सम्बन्ध के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सन्तानों द्वारा मानव-जाति या समाज अमर हो जाता है। मनुष्य की कितनी ही अकांक्षाएँ और अभिलाषाएँ सन्तान से पूर्ण होती हैं। सन्तान द्वारा उसकी वंश-रक्षा नहीं बल्कि वंश परम्परा या संस्कृति प्रतिमान की भी रक्षा होती है। इतना ही नहीं, शरीर के स्वस्थ निर्वाह के लिए तथा मानसिक शान्ति के लिए भी यौन सम्बन्धी इच्छाओं की पूर्ति आवश्यक है। संकुचित अर्थ में ‘काम’ का एक दीर्घकालीन महत्व भी उल्लेखनीय है। काम-वासनाओं की सन्तुष्टि से इन्द्रियाँ तुष्ट होती हैं और विरक्ति की भावना का उदय सम्भव होता है और यह विरक्ति की भावना जीवन के परम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति का पक्ष प्रशस्त करती है; भोग ही त्याग का कारण बन जाता है। इस प्रकार पुरुषार्थ की सम्पूर्ण अवधारणा में संकुचित अर्थ में भी ‘काम’ का महत्व कम नहीं है क्योंकि मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है और उस मोक्ष की प्राप्ति में ‘काम’ सहायक सिद्ध हो सकता है।
अपने व्यापक रूप में, जैसा डॉ. गोपाल ने लिखा है, काम का अर्थ इच्छा है। इस रूप में काम सभी कार्यों की जड़ है क्योंकि सभी कार्य किसी इच्छा से ही प्रेरित होते हैं। मनुस्मृति में तो स्वीकार किया गया है कि वेद का अध्ययन और वेदों में प्रतिपादित कर्त्तव्यों का पालन भी काम पर ही आधारित है (काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मगोगश्च वैदिकः)। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा कि “मैं वही काम हूँ जो धर्म के विरुद्ध नहीं है” (धर्माविरुद्धो भूतेषु कामेस्मि भरतर्षभ)। इसी प्रकार किसी भी अर्थ में काम के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।