एड्स सामाजिक बीमारी है स्पष्ट कीजिए

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    anshu
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        एड्स सामाजिक बीमारी:- एचआईवी संक्रमित/एड्स पीड़ित व्यक्ति को शारीरिक चुनौतियों के अतिरिक्त जीवन के सभी आयामों पर संकट का सामना करना पड़ता है। कुछ प्रमुख चुनौतियाँ निम्नांकित है:

        (1) व्यक्ति समाज एवं परिवार द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता है, उसे सामाजिक लांछन का सामना करना पड़ता है। चिकित्सक एवं अन्य सहयोगी कर्मचारी भी उससे दूर भागते हुए पाये गये हैं।

        (2) व्यक्ति अपनी दशा के लिए अत्यधिक आत्मग्लानि, पाप बोध से पीड़ित देखा जाता है।

        (‘3) प्रायः पीड़ित व्यक्ति को नौकरी से अलग कर दिया जाता है और इस प्रकार उसे आर्थिक क्षति होती है जबकि उपचार के उसे अतिरिक्त आर्थिक संसाधन की आवश्यकता होती है।

        (4) पीड़ित व्यक्ति के समक्ष नयी समायोजनात्मक चुनौतियाँ प्रकट होती है।

        (5) व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के विकास में इच्छा शक्ति की भूमिका होती है। एड्स से पीड़ित व्यक्ति में प्रायः जीवन के लिए इच्छा शक्ति का अभाव पाया जाता है।

        एड्स  बीमारी में सामाजिक मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप:-

        एचआईवी/एड्स से प्रभावित व्यक्ति संक्रमण की पहचान होने के समय से ही अनेक समस्याओं का सामना करता है।

        प्रथम उसे यह लगने लगता है कि उसके मृत्यु वारंट पर हस्ताक्षर हो चुका है।

        द्वितीय, वह सामजिाक/नैतिक स्तर पर लांछित किया जाता है।

        तृतीय, परिवार, मित्रों, सहकर्मियों आदि द्वारा सामाजिक स्तर पर ( बहुत कुछ भयवश) बहिष्कृत कर दिया जाता है;  यहाँ तक कि चिकित्सक भी उसकी अपेक्षा करते पाये जाते हैं।

        चतुर्थ, उपचार की ऊँची कीमत के कारण उसके समक्ष आर्थिक संकट प्रकट होता है। उक्त सभी के संयुक्त प्रभाव का सामना कर पाने के लिए पीड़ित व्यक्ति को परामर्शन सहायता की आवश्यकता होती है।

        व्यक्ति की पहली आवश्यकता ऐसे स्वैच्छिक संगठनों के विषय में जानकारी पाना होता है जो उसे विभिन्न स्तरों पर सहायता प्रदान कर सकते हैं।

        वस्तुतः एचआईवी की जाँच होने से पहले ही मनोवैज्ञानिक परामर्शन की आवश्यकता समुत्पन्न हो जाती है क्योंकि पहले तो व्यक्ति को एचआईवी की जाँच सम्बन्धी विचार/ प्रस्ताव के साथ ही समायोजित होना पड़ता है तथा परीक्षणोपरांत आने वाली किसी अशुभ सूचना का सामना कर पाने के लिए भी तैयार होना पड़ता है।

        परीक्षा किये जाने से पूर्व सभी क्लायंट्स को मनोवैज्ञानिक परामर्शन एक नियमित प्रक्रिया के अधीन आवश्यक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए ( Bernard Ratigan, 2000 )।

        ऐसा परीक्षण कराने के विचार मात्र से अधिकतर व्यक्तियों में सांवेगिक संकट प्रकट हो जाता है। ऐसे व्यक्ति भी एचआईवी/एड्स के भय से ग्रसित पाये जाते हैं जो कि संक्रमण मुक्त ( sero negative ) होते है

        एचआईवी/एड्स के उपचार के लिए अनेक ऐसी कारगर औषधियों का अब विकास हो चुका है जो जीवन की सम्भावना को बढ़ाते हैं किन्तु ऐसा देखा गया है कि जिन व्यक्तियों में स्वयं को मनोवैज्ञानिक स्तर पर संगठित करने की सामर्थ्य होती है ‘

        वे उपचार अधिक अच्छे ढंग से स्वीकार करते हैं। परामर्शन सहायता के फलस्वरूप व्यक्ति लम्बी – आयु से सम्बन्धित चुनौतियों का सामना कर सकता है।

        एचआईवी परामर्शन/उपचार के क्षेत्र में मानवतावादी, संज्ञानात्मक अस्तित्ववादी एवं सर्वांग उपागम अधिक प्रयुक्त होता है।

        क्लायंट को जिस प्रकार परिवार/प्रणालीगत स्तर पर सहायता की आवश्यकता होती है उसे देखते हुए सर्वांग उपागम (systemic approach) की उपयोगिता महत्त्वपूर्ण हो सकती है। चूँकि समस्या का मौलिक समाधान विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा किया जाना होता है

        अतः परामर्शदाता/मनोपचारक को कार्यदल के सक्रिय सदस्य के रूप में कार्य करने की आवश्यकता होती है।

        एचआईवी संक्रामित व्यक्ति परीक्षणोपरान्त सर्वप्रथम परिणाम के बारे में अविश्वास की प्रतिक्रिया से आरंभ करता है किन्तु तत्पश्चात वह पूरी तरह टूट जाने की अवस्था में पहुँचता है।

        परामर्शन कार्य द्वारा उसे अपनी दशा का सृजनात्मक रूप में सामना करते हुए लम्बी आयु तक सफलतापूर्वक जीवन-यापन करने की दिशा में सहायता दी जा सकती है। व्यक्ति के समक्ष जीवन के संकट के फलस्वरूप खतरे एवं चुनौतियाँ दोनों ही प्रकट होती है।

        ऐसे व्यक्ति के लिए निराशा, असहायता जैसी ऋणात्मक अनुभूतियाँ उपयुक्त नहीं होती है। सामाजिक स्तर पर क्या उचित और अनुचित है इस विषय का पुनर्मूल्यांकन किया जा सकता है। व्यक्ति के लिए आत्मग्लानि एवं लज्जा की अनुभूति से बाहर आने की आवश्यकता होती है।

        मनोपचार/परामर्शन के अन्तर्गत इस विषय में कार्य किया जा सकता है। क्लायंट के लिए इस समग्र प्रयास में गोपनीयता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है।

        .कुछ क्लायंट द्वारा आत्म हत्या, ऐच्छिक मृत्यु (euthnasia) की माँग जैसे विचार प्रस्तुत किया जा सकता है, वे अपनी वसीयत तैयार कराना चाहते हैं।

        ऐसे संदर्भ में परामर्शन कार्य का उद्देश्य लम्बी आयु के लिए संघर्ष हेतु क्लायंट को तैयार करना होना चाहिए क्योंकि जीवन समापन एंव जीवनोपरान्त विषयों पर विचार-विमर्श से उपचार एवं समायोजन कार्य प्रभावित होता है।

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