प्रारंभिक मध्यकालीन में भारत दिल्ली प्रशासन की एक प्रमुख उपलब्धि कृषि से होने वाली आय तथा इससे संबंधित राजस्व व्यवस्था थी।
किसी भी प्रदेश को जीतने के तुरंत बाद उस प्रदेश के अभिजात वर्ग के साथ समझौता किया जाता था। इस तरह इस प्रदेश का भू-राजस्व हराए गए राजा पर निश्चित किये गये भेंट जैसा था।
भू-राजस्व के क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन लगभग एक शताब्दी के अनुभव के बाद आया।
भारत में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद दिल्ली सुल्तानों ने जमीन को तीन वर्गों में विभाजित किया-इक्ता जमीन अर्थात् अधिकारियों को इक्ता के रूप में दी गई
जमीन , खलिसा जमीन या शासक की जमीन अर्थात् वह जमीन जो सीधे सुल्तान के अधीन होती थी तथा जहां का राजस्व दरबार तथा राजा के घर को चलाने में प्रयुक्त होता था तथा इनाम जमीन (मदद-ए-माश दूरग या वक्फ जमीन) अर्थात धार्मिक व्यक्ति या संस्था को दी जाने वाली जमीन।
ग्रामीण वर्ग-किसानः किसान, जिसे बलाहार कहते थे, उपज का एक तिहाई तथा कई बार आधा हिस्सा भू-राजस्व के रूप में देते थे। भू-राजस्व के अलावा भी उन्हें कुछ कर देने होते थे जिससे यह प्रमाण मिलता है कि इस समय कर का बोझ काफी था।
दूसरे शब्दों में, किसानों की स्थिति दयनीय थी। इसी के परिणामस्वरूप अनेक अकाल हुए।
मुकद्दम तथा छोटे जमींदारः उनकी स्थिति अच्छी थी क्योंकि वे अपने पद का गलत प्रयोग साधारण किसान के शोषण के लिए करते थे।
स्वतंत्र जमींदार: ये सबसे धनी ग्रामीण वर्ग थे। यद्यपि ये पराजित शासक वर्ग के लोग थे, किंतु ये अब भी अपने क्षेत्र में शक्तिशाली थे तथा पूर्व मुस्लिम पूर्व काल की तरह ही विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
कृषि में सुधार -सुल्तानों ने सिंचाई व्यवस्था में सुधार द्वारा ‘तकावी‘ ऋण (विभिन्न कृषि कार्य के लिए) देकर कृषि व्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया।
उन्होंने किसानों को खाद्यान्न के स्थान पर नकदी फसल, कम उन्नत फसलों (जी) के स्थान पर उन्नत फसल (गेहूं) उपजाने के लिए प्रेरित किया।
भारतीय फलों तथा बगीचों के स्तर में आमतौर पर काफी सुधार हुआ। बेकार जमीन विभिन्न लोगों को दी गई जिससे कृषि का विस्तार हुआ।