वर्तमान में समकालीन साहित्य पत्रकारिता के दो संकट हैं। एक तो कागज की महँगाई, जिसके कारण जो लोग व्यसन के रूप में साहित्यिक पत्रकारिता करते हुए भी अपनी जेब से इतनी हानि नहीं उठा सकते जितनी हानि उठानी पड़ रही है।
दूसरा बड़ा कारण यह है कि विज्ञापन पर यदि जिये तो विज्ञापन की अपसंस्कति उसे लील जाएगी। उसकी रीति, नीति से ऐसा दबाव पड़ेगा जिससे साहित्य की संस्कृति दुष्प्रभावित होगी।
इसके बावजूद इन दबावों के रहते हुए भी हमारी साहित्यिक पत्रकारिता अपने दायित्व का निर्वाह कर रही है। यह सुखद आश्चर्य है, पर यह हिन्दी की अपनी ऊर्जा ही है जो ऐसा करवा रही है।