रस का स्वरूप :-
“सत्त्वोद्रेकादखण्डस्वप्रकाशानंदचिन्मयः
वेद्यान्तरस्पर्शशून्यः ब्रहमानंदसहोदरः।
लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चिद् प्रभातृभिः।
स्वाकारवद भिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः।।”
यहाँ ‘सत्त्वोद्रेकाद’ इस पद से हेतु का निर्देश किया गया है |
और ‘खण्डस्वप्रकाशानंदचिन्मयः’ ‘वेद्यान्तरस्पर्शशून्यः ब्रहमानंदसहोदरः’ ‘लोकोत्तरचमत्कारप्राणः’ इन पदों से रस का स्वरूप बतलाया गया है।
एवं ‘स्वाकारवद भिन्नत्वेनाय’ इससे उसके स्वाद का प्रकार और ‘कैश्चिद् प्रभातृभिः’ से रसास्वाद के अधिकारियों का निर्देश किया गया है।
“अन्तःकरण में रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण के सुन्दर स्वच्छ प्रकाश होने से रस का साक्षात्कार होता है।अखण्ड, अद्वितीय, स्वयं प्रकाशस्वरूप आनंदमय और चिन्मय ( चमत्कारमय ) यह रस का स्वरूप ( लक्षण ) है । रस के साक्षात्कार के समय दूसरे वेद्य (विषय ) का स्पर्श तक नहीं होता । रसास्वाद के समय विषयान्तर का ज्ञान पास तक नहीं फटकने पाता, अतएव यह ब्रह्मास्वाद (समाधि) के समान होता है। जिसमें आनन्द अस्मिता आदि आलम्बन रहते हैं। निरालम्बन निर्वितर्क समाधि की समता इसमें नहीं है। क्योंकि रसास्वाद में विभावादि आलम्बन रहते हैं”