तुलसीदास के काव्य सौंदर्य :-
(1) रामभक्त कवि- तुलसी राम के अनन्य भक्त थे। उनके अधिकांश ग्रन्थ रामकथा एवं रामभक्ति से ओत-प्रोत हैं। वे ईश्वर के सगुण-साकार रूप के उपासक थे और अवतारवाद में विश्वास करते थे। तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं जो धर्म की रक्षा के लिए एवं असुरों के विनाश के लिए जन्म लेते हैं। वे शक्ति, शील एवं सौन्दर्य के भण्डार हैं। तुलसी राम के प्रति वही भाव रखते हैं जो चातक का स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले जल के प्रति होता है
एक भरोसो एक बल एक आस विस्वास।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।।
(2) दास्य भाव की भक्ति- तुलसी की भक्ति दास्य भाव की है। वे स्वयं को दास और राम को अपना स्वामी मानते हैं। उनकी भक्ति निष्काम हैं। वे यही चाहते हैं कि राम और सीता सदैव मेरे हृदय में निवास करें
मांगत तुलसीदास कर जोरे। बसहु राम सिय मानस मोरे।। उनकी धारणा है कि सेवक-सेव्य भाव के बिना संसार-सागर से पार जाना सम्भव नहीं है। काकभुशुण्डि रामचरितमानस में गरुड़ से कहते हैं
सेवक-सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
(3) समन्वय की भावना- तुलसी महान् समन्वयवादी लोकनायक थे। धर्म के क्षेत्र में उन्होंने शैव और वैष्णवों का और दर्शन के क्षेत्र में अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत का समन्वय प्रस्तुत किया है। साधना के क्षेत्र में भक्ति, ज्ञान और कर्म का समन्वय करते हुए सामाजिक जीवन के विविध क्षेत्रों में भी तुलसी ने समन्वय की चेष्टा की है। निर्गुण और सगुण को एक मानते हुए वे कहते हैं
अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुधवेदा।।
इसी प्रकार शैव और वैष्णव का समन्वय करते हुए वे राम से कहलवाते हैं
सिवद्रोही मम दास कहावा।
सो नर मोहि सपनेहुं नहिं भावा।।
ज्ञान और भक्ति का समन्वय करते हुए वे कहते हैं
ग्यानहिं भगतिहिं नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।।
(4) लोकमंगल की भावना- लोकमंगल की भावना तुलसी के काव्य का प्रमुख आधार थी। तुलसी की साहित्य रचना स्वान्तः सुखाय होते हुए भी लोकमंगल की रचना है। उनके राम ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ हैं। यह चौपाई लोकमंगल की भावना को ही प्रकट करती है।