काजल की कोठरी और भूतनाथ नामक उपन्यासों के रचयिता देवकीनन्दन खत्री है।
देवकीनन्दन खत्री के रहस्य-रोमांस युक्त उपन्यासों को भले ही साहित्यिक श्रेणी में नहीं रखा जाता परन्तु इनके ‘चन्द्रकाता सन्तति‘ को पढ़ने के लिए अनेक लोगों ने हिन्दी सीखी। कुछ भी हो, खत्री जी को हिन्दी उपन्यास का जनक कहा जाता है।
खत्री जी का जन्म 18 जून, 1861 को मुजफ्फरपुर के पूसा नामक स्थान पर हुआ था। इनके पूर्वज पंजाब के निवासी थे परन्तु रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद खत्री जी के पिता ला. ईश्वरदास बनारस आ गये और वहीं बस गये।
देवकीनन्दन जी ने प्रारम्भ में उर्दू और फारसी पढ़ी परन्तु बनारस आने के बाद हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन भी किया। पिता का व्यापार अच्छा था। उन्होंने गया में भी व्यापार की शाखा स्थापित की थी जिसे देवकीनन्दन देखते थे।
खत्री जी को दोस्तों के साथ महफिलबाजी और पंतग का शौक था। गया से बाद में वह बनारस आ गये। काशी नरेश से उनकी मित्रता थी परन्तु वह उनके मुसाहिब नहीं बने।
राजा से मित्रता के कारण उन्होंने जंगलों के ठेके लिए, जहाँ से उन्होंने धन भी कमाया और सैर-सपाटे भी खूब किये। परन्तु एक दिन अचानक शेर का शिकार करने के कारण ठेके छीन लिए गये, तब उन्हें खालीपन अनुभव हुआ और उन्होंने उस समय का सदुपयोग कर उपन्यास लिखे।
‘चद्रकांता‘ उपन्यास का पहला भाग 1888 में पूरा हुआ। इस प्रकार हिन्दी में तिलस्मी और ऐयारी उपन्यासों की एक नई शृंखला प्रारंभ हुई। ‘चन्द्रकांता’ का अभूतपूर्व स्वागत हुआ।
इसकी अभूतपूर्व सफलता के बाद उन्होंने अपने ‘लहरी प्रेस’ की स्थापना की और अपने उपन्यास स्वयं प्रकाशित करने लगे। ‘उपन्यास लहरी’ मासिक पत्रिका भी निकाली और ‘सुदर्शन’ भी उन्हीं की देखरेख में छपता था।
उन दिनों वहाँ के प्रसिद्ध साहित्यकार जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, बालमुकुन्द गुप्त, हरिकृष्ण जोहर, किशोरीलाल गोस्वामी आदि इनके मित्र थे।
खत्री जी ने ‘चन्द्रकांता’, ‘चन्द्रकांता संतति’ (24 भाग) ‘भूतनाथ’ (6 भाग) नरेन्द्र मोहिनी’, ‘कुसुमकुमारी’, ‘काजल की कोठरी’ आदि उपन्यास लिखे।
आज भी इनके पाठक हिन्दी जगत में विद्यमान हैं।