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उत्तरकर्ता jivtarachandrakantModerator
अलंकार शब्द की उत्पत्ति ‘अलम्’ धातु में ‘कार’ प्रत्यय लगाने से हुई है। अलम् का शाब्दिक अर्थ ‘आभूषण’ है।
जिस प्रकार आभूषणों से शरीर की सुन्दरता बढ़ती है, ठीक उसी प्रकार अलंकारों के प्रयोग से काव्य की शोभा बढ़ती है। अन्य शब्दों में काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं।
अलंकार के मुख्य तीन भेद हैं
1. शब्दालंकार
2.अर्थालंकार
3.उभयालंकार
1. शब्दालंकार- शब्दालंकार के भेद (i) अनुप्रास, (ii) यमक, (iii) श्लेष।
(i) अनुप्रास–जहाँ पर वर्णों की आवृत्ति हो, अनुप्रास-अलंकार होता है (आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है)
जैसे:-
मुदित, महीपति मन्दिर आये। सेवक सचिव सुमंत बुलाए॥
इस चौपाई में पहले पद में म की और दूसरे में स की तीन-तीन बार आवृत्ति हुई है।
अनुप्रास के पाँच भेद हैं।
(क) छेकानुप्रास
(ख) वृत्यानुप्रास
(ग) लाटानुप्रास
(घ) श्रुत्यानुप्रास
(च) अन्त्यानुप्रास
(ii) यमक – यमक जहाँ एक शब्द की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार होती है, परन्तु उनके अर्थ अलग-अलग होते हैं, वहां यमक अलंकार होता है। जैसे:-
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय जग, या पाये बौराय।।
(यहाँ कनक का प्रयोग दो बार हुआ है, पर भिन्न-भिन्न दो अर्थों में धतुरा और सोना के अर्थ में)।
अन्य उदाहरण:-
हरि हरि रूप दियो नारद को, देखई दोउ | शिवगण मुस्काई।
यहाँ पर एक हरि का अर्थ विष्णु और अन्य हरि का अर्थ | बन्दर से है।
यमक के दो भेद होते हैं
(क) अभंग पद यमक
(ख) भंग पद यमक
(iii) श्लेष— जब पंक्ति में एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते है | तब वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
जैसे – चरण धरत चिन्ता करत, चितवत चारिहु ओर। सुबरन को खोजत फिरत, कवि, व्यभिचारी, चोर॥
श्लेष अलंकार के दो भेद होते हैं
(क) अभंग श्लेष
(ख) सभंग श्लेष
(ग) अर्थ श्लेष
2. अर्थालंकार- जहाँ काव्य में अर्थगत चमत्कार उत्पन्न होता है, वहाँ अर्थालंकार होता है।
अर्थालंकार के भेद— अर्थालंकार के अनेक भेद होते हैं, जिनमें निम्न प्रमुख हैं
1. उपमा
2. रूपक
3. उत्प्रेक्षा
4. भ्रान्तिमान
1. उपमा- समान धर्म, स्वभाव, शोभा, गुण आदि के आधार पर जहाँ एक वस्तु की तुलना दूसरी वस्तू से की जाती है, वहाँ पर उपमा अलंकार होता है। अन्य अर्थों में—“दो वस्तुओं में समान धर्म के प्रतिपादन को उपमा कहते हैं।
उपमा के चार अंग होते हैं
(i) उपमेय—जिसकी उपमा दी जाए।(ii) उपमान—जिससे उपमा दी जाए।
(iii) वाचक- जिस शब्द से उपमा प्रकट की जाए।
(iv) समान धर्म—जिस गुण आदि को लेकर तुलना की जाए।जैसे—राधा का मुख कमल के समान सुन्दर है। यहाँ सुन्दर समान धर्म है।
2. रूपक अलंकार—जहाँ पर उपमेय को ही उपमान का रूप दिया जाए, वहाँ पर रूपक अलंकार होता है।
कवि के शब्दों में ‘उपमेय उपमान जहाँ एकै रूप कहाय’।
उदाहरणार्थ मुख चन्द्र है। जहाँ पर मुख को चन्द्र स्वीकार किया गया है, इसलिए यहाँ रूपक है।
अन्य उदाहरण हैं
(क) चरन सरोरुह नाथ! जनि, कबहुं तजे मति मोरि।
(ख) चरन-सरोज पखारन लागा।
(3) उत्प्रेक्षा अलंकार—जहाँ उपमेय में उपमान से भिन्नता होते हुए भी उपमान की संभावना की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मनु, जन, मानो, जानो आदि इस अलंकार के वाचक हैं।
उदाहरणार्थ
‘लता भवन ते प्रकट भे, तेहि अवसर दोऊ भाय।मनु निकसे जुग-बिमल विधु, जलद-पटल बिलगाय।।”
यहाँ उपमेय ‘राम-लक्ष्मण’ के लिए उपमान ‘विधु’ को उपस्थित किया गया है, इसलिए यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार हैं।
उत्प्रेक्षा अलंकार के प्रमुख तीन भेद इस प्रकार हैं
(क) हेतूत्प्रेक्षा
(ख) वस्तूत्प्रेक्षा
(ग) फलोत्प्रेक्षा
(4) भ्रांतिमान अलंका-सन्देह में तो यह सन्देह बना रहता है कि वस्तु रस्सी है या सर्प है, किन्तु प्रान्तिमान में तो अत्यन्त समानता के कारण एक वस्तु को दूसरी समझ लिया जाता है और उसी भूल के अनुसार कार्य भी कर डाला जाता है।
उदाहरणार्थ
‘बिल विचारि प्रविसन लग्यौ, नाग शुंड में व्याल।ताह कारो ऊख भ्रम, लिय उठाय उत्ताल।।‘
3. उभयालंकार – वे अलंकार जो शब्द और अर्थ दोनों के आधार पर काव्य की | शोभा बढ़ाते हैं, उन्हें उभयालंकार कहते है।
जैसे
भूपाते भवनु सुहावा, सुरपति सदनु न परतर पावा।उभयालंकार के भेद-इसके दो भेद होते है।
(1) संकर-जहाँ दो या दो से अधिक अलंकार आपस में समान रूप से घले-मिले रहते हैं, वहाँ संकर अलंकार होता है।
जैसे :- नाक का मोती अधर की कांति से, बीज दाडिम का समझकर भ्रांति से। देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचना है अन्य शुक यह कौन है?
(2) संसृष्टि-जहाँ दो या दो से अधिक अलंकार आपस में मिलकर भी स्पष्ट रहे, वहाँ संसृष्टि अलकार होता है।
जैसे :- तिरती गृह बन मलय समीर, साँस, सुधि, स्वप्न, सुरभि, सुखगान। मार केशर-शर, मलय समीर, हृदय
अलंकार विषयक दृष्टिकोण –अलंकारो का विवेचन भरतमुनि ने प्रारम्भ कर दिया इसकी वास्तविक विकास -यात्रा इसके उपरान्त ही हो सकी
आचार्य भामह को अलंकार -सम्प्रदाय का प्रथम आचार्य इसी कारण माना जाता है अलंकारों क्रमिक विकास दिखाया जा सकता है
आचार्य भामहः– भामह ने अपने “काव्यालंकार’ ग्रन्थ में अलंकार वर्णविन्यास, अतिषयोक्ति, वक्रोक्ति गुण आदि तत्वों का विवेचन किया है सभी में अलंकार तत्व को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बनाया है भामह ने कुल अड़तीस अलंकारों का विवेचन किया है।
आचार्य दण्डी:- अलंकार सम्प्रदाय के दूसरे प्रमुख आचार्य दण्डी माने जाते है भामह की अपेक्षा इनका अलंकार विवेचन सुव्यवस्थित है इन्होने अपने “काव्यादर्श’ में पैतीस अलंकारो का विवेचन किया है।
आचार्य उदभट:- अलंकारों के संशोधन – संवर्दन में उद्भट का भी महत्वपूर्ण स्थान है उन्होने काव्यालंकार सार संगृह में इकतालीस अलंकारो का विवेचन किया है, अलंकार निरूपण में भामह के पदचिनें पर बढ़ते हुए और उनकी अनेक परिभाषाओं को यथावत् स्वीकार किया है।
आचार्य रन्द्रट:- अलंकार शास्त्र के विकास में आचार्य रन्द्रट का विशेष योगदान माना जाता है इन्होने पूर्व परम्परा का अनुकरण किया है आचार्य रन्द्रट ने अपने काव्यालंकार में 51 अलंकारों का विवेचन किया है 26 परम्परानुमोदित है 25 उनके द्वारा अन्वेशित है।
भोजराज:- अलंकारों के इतिहास में भोजराज के नाम में भी उल्लेखनीय है उनमें कार्य में मोलिकता के कम तथा संग्रह वृति के अधिक दर्शन है शब्दालंकारों का रूप दषनीम है।
राजानक रूह्यक:- अलंकार निरूपण को प्रौढ़ता एवं गंभीरता प्रदान करने वाले में राजनक रूम्यक का नाम महत्वपूर्ण है इन्होने छंद शब्दालंकारो तथा 75 अर्थालंकारो का विशद विचन किया है
रूम्यक का महत्व अलंकारों की संख्या बढ़ाने की दृश्टि से नही बल्कि अलंकारो के गंभीर विवेचन की दृश्टि
है।जयदेवः- पीयूश वर्श जयदेव ने “चन्द्रालोक” में रसहवनिवादयिं की अलंकार विषयक मान्यताओ का प्रबल खण्डन किया है उन्होने “चन्द्रलोक” के पंचम मयूख में 8 शबदालंकारों तथा 100 अर्थालंकारो का विश्लेशण किया है।
विश्वनाथः- परवर्तीकाल में रसवादी आचार्य विश्वनाथ ने 6 शब्दालंकारों और 72 अर्थालंकारो का विवेचन किया है विष्वनाथ ने “साहित्यदर्पण” में अनुप्रास के कुछ नवीन भेदो की भी उद्भावना की है ।
अपने पूर्ववर्ती महाकवियों की भाँति तुलसी भी अलंकार-प्रेमी हैं। ‘अलंकार’ शब्द लालित्य-वाचक है। काव्य शब्दार्थमय है। अतः उक्ति-वैचित्र्य और अर्थ-वैचित्र्य के विविध सौंदर्य-रूपों की विवेचना की गई है।
एकाध संभ्रांत आलोचकों का अंधविश्वास है कि रस-सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र का सर्वाधिक व्यापक सिद्धांत है; उनकी कल्पना है कि संस्कृत के अलंकारवादी आचार्य रस-विरोधी हैं।
वास्तविकता यह है कि कोई भी अलंकारवादी रस-विरोधी नहीं है। रसवादियों से अलंकारवादियों का मतभेद रस के आपेक्षिक महत्त्व के विषय में है।
अलंकारमत की व्यापकता सर्वविदित है। संस्कृत-काव्यों की व्यावहारिक समीक्षा टीकाओं में उपलब्ध है। उनमें सर्वाधिक महत्त्व अलंकारों को दिया गया है। काव्य-शास्त्र में भी सर्वाधिक विवेचन अलंकारों का ही हुआ है।
रसवादी रस को ध्वनि का एक भेद मानता है। व्यापक ध्वनि का व्याप्य रस सर्वाधिक व्यापक कैसे हो सकता है? ध्वनि-सिद्धांत में अलंकार को गीण स्थान दिया गया है।
उसका अलंकार्य ध्वनि है। वह रसादि का उत्कर्ष-हेतु है, शोभावर्धक है। अतः काव्य का अनिवार्य तत्त्व नहीं है। परंतु काव्य के सौंदर्य-वर्धन में उसकी उपयोगिता असंदिग्ध है।
यही कारण है कि काव्यप्रकाश’, ‘साहित्यदर्पण’ और उत्तरकालीन ‘रसगंगाधर’ के सदृश ग्रंथों का बहुत बड़ा भाग अलंकार-निरूपण में लगाया गया है।
मध्यकालीन हिंदी-आचार्यों ने अलंकारों को प्रतिष्ठित पद दिया है। केशवदास तो कट्टर अलंकारवादी थे। भक्त कवि तुलसी ने भक्तिरस को अलंकार्य मानकार अलंकारों को उसके शोभावर्धक धर्म के रूप में ही स्वीकार किया है।
सुकवियों की भी सब-भूषण-भूषित विचित्र भणिति को राम-नाम के बिना शोभाहीन’ कहने का यही तात्पर्य है।