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उत्तरकर्ता maharshiParticipant
मध्य युग में क्षेत्रीय भाषाओं एवं साहित्य का उल्लेखनीय विकास हुआ, इसके विकास में सबसे बड़ा सहायक तत्व सूफी एवं भक्ति आंदोलन का रहा जिससे सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में एक नवीन शक्ति एवं गतिशीलता का संचार हुआ। फलस्वरूप लोक भाषाओं की साहित्य-रचना का आरम्भ हुआ। मध्यकाल में युग परिवर्तन के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में भी परिवर्तन हुए |
हिन्दी भाषा का उदय शौरसेनी और अर्धमागधी भाषाओं से माना जाता है इसके कम से कम सत्रह क्षेत्रीय रूप जिन्हें हम हिन्दी की बोलियां कहते हैं। इसके अंतर्गत ब्रज, अवधी, डिंगल, मैथिली, खड़ी बोली, मालवी, राजस्थानी आदि का लिखित साहित्य में विवेचन किया जाता है।
आदिकाल का प्रारम्भ आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक माना जाता है। आदिकाल के अधिकांश वीरगाथात्मक लेखक चारण कवि थे, जिन्होंने अपनी शाही संरक्षकों एवं सामंतों की प्रशस्ति का अतिरंजित एवं अतिश्योक्तिपूर्ण भाषा में यशोगान किया। इस काल के| साहित्य की सबसे बड़ी सामंतवादी विशेषता यह है कि ये कवि अपने चरित नायक की श्रेष्ठता और प्रतिपक्षी राजा की हीनता का वर्णन करने में अपनी श्रेष्ठता समझते थे। परिणामस्वरूप ऐतिहासिक तथ्यों की कवियों द्वारा रक्षा नहीं हो पाई, जिससे समकालीन साहित्य में ऐतिहासिक तथ्यों एवं कल्पना का बड़ा विलक्षण मिश्रण है। इस काल में ‘रासो’ का मुख्य उद्देश्य ऐतिहासिक घटनाओं का विवेचन करना नहीं, वरन् अपने चरित नायकों को प्रसन्न एवं गौरवान्वित करना था।
साहित्य- हिन्दी भाषी प्रदेश के पूर्वी भाग में सिद्ध कवियों ने जिस प्रकार हिन्दी कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म की वज्रयानी शाखा के सिद्ध साहित्य का प्रचार किया, उसी प्रकार जैन साधुओं ने भी | पश्चिमी भाग में हिन्दी कविता के माध्यम से अपने मत का प्रचार किया है।लौकिक साहित्य- वीरगाथा काल साहित्य की ही भांति इस काल में लौकिक विषयों पर साहित्य रचना की बड़ी सशक्त परम्परा प्रचलित हुई। इस श्रेणी के साहित्य में ढोलामारू का दोहा नामक प्रसिद्ध लोकभाषा काव्य ग्यारहवीं शताब्दी में लिखा गया। इस काव्य में नारी हृदय के कोमल भावों का बहुत ही मार्मिक वर्णन है। इसी संदर्भ में दो अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ-जयचन्द्र प्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका है, यद्यपि ये पूरे तौर पर उपलब्ध नहीं है। आदि काल के अंतिम चरण में रचित ग्रंथ ‘वसंत विलास’ में श्रृंगारिक वर्णन किया गया है।
समकालीन लौकिक साहित्य के अमर कवि अमीर खुसरो हैं जो सामंतवादी प्रवृत्तियों से पूर्णतः विलग समकालीन जनसंस्कृति के प्रतीक हैं। साहित्य जन-जन के लिए होता है। अमीर खुसरो ने अपने लेखन में जनसाहित्य के आदर्श को बहुत सार्थक रूप दिया। उन्होंने जन-जीवन के साथ घुल-मिलकर साहित्य की रचना की। आदिकाल में खड़ीबोली में रचना करने वाले वे पहले साहित्यकार हैं। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने सौ ग्रन्थों की रचना की, जिनमें अब केवल बीसइक्कीस ग्रंथ ही उपलब्ध हैं।
गद्य साहित्य- इस प्रसंग में हम गुलवेल नामक कृति का उल्लेख कर सकते हैं, जो दसवीं शताब्दी की कृति है। रोडा नामक कवि ने इसमें ‘राडल’ नामक नायिका का नखशिख वर्णन किया है। आदिकालीन हिंदी साहित्य पर एक नजर डालने पर हम समकालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों का यर्थाथ दर्शन करते हैं। धर्म एवं संस्कृति के क्षेत्र में भी हमें समकालीन साहित्य में | अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों की जानकारी होती है। एक ओर भोगवादी सिद्धा वायमार्गी थे, तो दूसरी ओर नाथपंथी थे जिन्होंने योग का हठमार्ग का सहारा लिया और वायमार्ग का खण्डन किया। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में धर्म सम्बन्धी दो धारायें प्रवाहित हुई-निर्गुण भक्ति एवं सगुण भक्ति ।