मंदिर स्थापत्य की दक्षिण भारतीय शैली की प्रमुख विशेषताए:- कृष्णा नदी के दक्षिण में कन्याकुमारी अंतरीप तक विकसित मंदिर स्थापत्य की शैली द्रविड शैली के नाम से जानी जाती है।
द्रविड़ पद्धति के मंदिर का वास्तुशास्त्र का प्रतिनिधित्व मंदिर के विमान के द्वारा होता है। इस शैली के मंदिर आयताकार तथा शिखर पिरामिडाकार होते थे।
प्रदक्षिणापथ इस शैली की प्रमुख विशेषता है इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं।
मंदिर में अन्दर एक गर्भगृह होता है जिसमें मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है। गर्भगृह के ऊपर टॉवर-नुमा रचना होती है जिसे शिखर या विमान कहते हैं।
यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविण शैली कहलाती है। मंदिर निर्माण के इस शैली के विकास में राष्ट्रकूट, पल्लव तथा चोल वंश ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
8वीं शताब्दी के लगभग राष्ट्रकूट राजाओं ने पत्थरों को काटकर एलोरा तथा एलिफेंटा में द्रविड़ शैली के कुछ मंदिरों का निर्माण करवाये।
एलोरा में निर्मित रावण की खाई, रामेश्वर, दशावतार एवं कैलाश मंदिर प्रसिद्ध है। विश्व प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण
राष्ट्रकूट नरेश ‘कृष्ण प्रथम‘ ने करवाया था। द्रविड शैली के अंतर्गत निर्मित यह मंदिर स्थापत्य कला का अनोखा उदाहरण है।
7वीं से 10वीं शताब्दी के मध्य बने पल्लवकालीन मंदिरों में कांचीपुरम, महाबलीपुरम एवं तंजावूर के मंदिर प्रसिद्ध हैं।
पल्लवकालीन वास्तु कला की चार प्रमुख शैलियां हैं जो प्रमुख पल्लव नरेशों के नाम पर हैं
महेन्द्र शैली (610-640 ईस्वी) – के अन्तर्गत कठोर पाषाण को काटकर गुहा-मंदिरों का निर्माण हुआ जिन्हें ‘मण्डप‘ कहा जाता है।
ये मण्डप साधारण स्तम्भयुक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। मण्डप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ मिलती हैं जो कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की हैं।
‘मण्डप’ के सामने स्तम्भों की एक पंक्ति मिलती है। प्रत्येक स्तम्भ सात फीट ऊंचा है।
महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्ट का त्रिमूर्ति मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्रविष्णु गृहमण्डप, पल्लवरम् का पंचपाण्डव मण्डप, त्रिचनापल्ली का ललितांकुर पल्लवेश्वर गृहमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
मामल्ल शैली (640-674ई.) – का विकास पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन के समय में हुआ। उसने ‘मामल्ल‘ की उपाधि भी धारण की थी, अतः इसे मामल्ल शैली कहते हैं।
इस शैली का प्रमुख केन्द्र मामल्लपुरम (महाबलिपुरम्) नगर था जिसकी स्थापना नरसिंहवर्मन ‘मामल्ल’ ने की थी। इस शैली के अन्तर्गत दो प्रकार के मंदिर आते हैं-मंडप तथा रथ।
ये मंडप महेन्द्र वर्मन के समय के मंडपों की अपेक्षा अधिक विकसित और अलंकृत हैं। ये मंडप अपनी स्थापत्य कला के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
दूसरे प्रकार के मंदिर रथ हैं। ये एकाश्मक हैं मामल्ल शैली के रथ ‘सप्त पगोडा‘ के नाम से प्रख्यात हैं। इनकी संख्या आठ है, जैसे द्रौपड़ी रथ, अर्जुन रथ, धर्मराज रथ, भीम रथ, सहदेव रथ, इत्यादि।
इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यों से हुआ है। इनमें से द्रौपदी रथ एक अलग शैली का है।
राजसिंह शैली (674-800ई.) – का प्रारंभ पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन द्वितीय ‘राजसिंह ने किया। इसके अन्तर्गत गुहा-मंदिरों के स्थान पर पाषण, ईंट आदि की सहायता से इमारती मंदिरों का निर्माण करवाया गया।
इस शैली के मंदिरों में तीन महाबलीपुरम् से प्राप्त होते हैं- शोर मंदिर (तटीय शिव मंदिर), ईश्वर मंदिर तथा मुकुन्द मंदिर शोर मंदिर इस शैली का प्रथम उदाहरण है। इनके अतिरिक्त पनमलाई (उत्तरी अर्काट) मंदिर तथा काञ्ची के कैलाशनाथ एवं बैकुण्ठ पेरुमाल मंदिर भी उल्लेखनीय है।
महाबलीपुरम् के समुद्रतट पर स्थित शोर मंदिर पल्लव कलाकारों की अद्भुत कारीगरी का नमूना है। मंदिर का निर्माण एक विशाल प्रांगण में हुआ है
जिसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है। यह द्रविड़ वास्तु की एक सुन्दर रचना है। कांची स्थित कैलाशनाथ मंदिर में द्रविड़ शैली की सभी विशेषतायें
जैसे परिवेष्ठित प्रांगण, गोपुरम, स्तम्भयुक्त मण्डप, विमान आदि इस मंदिर में एक साथ प्राप्त हो जाती है। बैकुण्ठ पेरुमाल मंदिर भगवान विष्णु का मंदिर है जिसमें प्रदक्षिणापथ गर्भगृह एवं सोपानयुक्त मण्डप है।
नन्दिवर्मन शैली (800-900ई.)- के मंदिर नंदिवर्मन और उसके उत्तराधिकारियों के राज्यकाल में बने ये मंदिर आकार में छोटे हैं और पूर्ववर्ती मंदिरों की प्रतिकृति मात्र हैं। शैली में कोई नवीनता नहीं है,
केवल स्तंभशीर्षों का अधिक विकास हुआ है। इस शैली के मंदिरों के उल्लेखनीय उदाहरण हैं- कांचीपुर के मुक्तेश्वर तथा मातंगेश्वर मंदिर तथा गुडीमल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर राष्ट्रकूटकालीन मंदिर भी द्रविड़ शैली के हैं।
राष्ट्रकूटवंशी नरेश उत्साही निर्मात्ता थे। महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद में स्थित एलोरा नामक पहाड़ी पर हिन्दू गुहा-मंदिर प्राप्त होते हैं। इनमें से अधिकांश का निर्माण राष्ट्रकूट राजाओं के शासन काल में किया गया है।
मंदिरों में कैलाश मंदिर अपनी आश्चर्यजनक शैली के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
इसके अतिरिक्त एलोरा के मध्य मंदिरों में रावण की खाई देववाड़ा, दशावतारा, रामेश्वर, लम्बेश्वर, नीलकंठ आदि विशेष रूप से उल्लेखीय हैं। दशावतार मंदिर का निर्माण आठवीं शती में दन्तिदुर्ग के काल में हुआ।
इसमें भगवान विष्णु के दस अवतारों की कथा राष्ट्रकूटकालीन मंदिर भी द्रविड़ शैली के हैं। राष्ट्रकूटवंशी नरेश उत्साही निर्मात्ता थे।
महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद में स्थित एलोरा नामक पहाड़ी पर हिन्दू गुहा-मंदिर प्राप्त होते हैं। इनमें से अधिकांश का निर्माण राष्ट्रकूट राजाओं के शासन काल में किया गया है।
मंदिरों में कैलाश मंदिर अपनी आश्चर्यजनक शैली के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त एलोरा के मध्य मंदिरों में रावण की खाई देववाड़ा, दशावतारा, रामेश्वर, लम्बेश्वर, नीलकंठ आदि विशेष रूप से उल्लेखीय हैं।
दशावतार मंदिर का निर्माण आठवीं शती में दन्तिदुर्ग के काल में हुआ। इसमें भगवान विष्णु के दस अवतारों की कथा मूर्तियों में अंकित हैं।
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि मंदिर स्थापत्य की द्रविड शैली कृष्णा तथा कुमारी अंतरीप के बीच दक्षिण भारत में प्रचलित थी इस शैली के विकास में राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल तथा पाण्डय वंश ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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