भक्तिकाल की विशेषताएं: भक्तिकाल हिंदी साहित्य का महत्वपूर्ण काल है। इस काल का साहित्य विशिष्ट साहित्य है।
साहित्य के इतिहास का यह काल जिसमें संत कवियों ने अपनी अमृतवाणी से जनमानस को सिंचित किया उनमें ज्ञान का दीपक जलाया तथा पतनोन्मुख समाज को नवीन चेतना प्रदान की।
डॉ. श्यामसुंदर दास ने इस काल के संबंध में कहा कि “जिस युग में कबीर, जायसी, सूर, तुलसी जैसे रस-सिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अंतःकरणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी।
उसे साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल कहते हैं, निश्चय ही वह हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग है।”
इस संदर्भ में इस काल की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।
नाम का महत्व:- कीर्तन भजन आदि के रूप में भगवान का गुणगान सभी शाखाओं की कवियों में पाया जाता है। सभी ने अपने इष्टदेव के नाम का स्मरण किया है। तुलसीदास जी तो रामनाम को ही सबसे बड़ा मानते हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं,
मोर मत बड़ नाम दोजू
जेहि किए जग नित बल बूते। ”
गुरु का महत्व:- इस काल में गुरु को प्रधान स्थान दिया गया। बिना गुरु के ज्ञान अधूरा है माना गया। कबीर ने तो गुरु को ईश्वर से भी बड़ा कहा_
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय,
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।
भक्ति भावना की प्रधानता:- सभी कवियों ने भक्ति भावना को प्रधानता दी है। सूर और तुलसी का संपूर्ण काव्य भक्तिभाव से परिपूर्ण है। मीरा की। भक्ति तो जग प्रसिद्ध। सूरदास ने जहाँ दास भक्ति का परिचय दिया तो मीरा ने भगवान को अपना पति माना।
आडंबर का विरोध:- सभी भक्त कवियों ने बाह्य आडंबर का विरोध किया है। बाहरी दिखावा ईश्वर प्राप्ति का साधन कभी नहीं हो सकता।