पश्चिमी हिंदी बोलियों की जननी को लेकर हमारे समझाएंगे उन पहलुओं को जो इस विषय को गहराई से समझने में मदद कर सकते हैं।
शौरसेनी प्राकृत एक महत्वपूर्ण भाषा है जो पश्चिमी हिंदी बोलियों की जननी कही जा सकती है। इसे शौरसेनी प्राकृत के नाम से भी जाना जाता है, जो मथुरा एवं उसके आस-पास के क्षेत्र में व्यापक रूप से बोली जाती थी। इसमें शौरसेनी प्राकृत की भाषा का व्यवहार होता था, जिसने इसे पश्चिमी हिन्दी बोलियों की उत्पत्ति का स्थान दिया।
इस भाषा का विकास मुख्य रूप से मध्य देश के क्षेत्र में हुआ था, जिससे यह संस्कृत के बहुत निकट आ गई। शौरसेनी प्राकृत ने अपने समय में अन्य प्राकृत भाषाओं की तुलना में अधिक प्रचलन पाया।
शौरसेनी प्राकृत का विशेषता स्वरूप है, जो संस्कृत नाटकों में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाए रखा है। यहां इसमें स्त्री, मध्यम वर्ग के पात्र, और विदूषक की भाषा में विविधता है।
शौरसेनी प्राकृत में ध्वनियों का अद्वितीय संघटन है, जिसमें त और थ की ध्वनियाँ क्रमशः द और ध में परिणत हो गईं, किन्तु मध्य की द और ध ध्वनियाँ सुरक्षित रहीं। यह भाषा विशेष रूप से गच्छति, गच्छदि, कथहि, कोहि, जलद् > जलदो आदि शब्दों में दिखाई देती है।
इस भाषा में क्ष के स्थान पर ‘क्ख’ का प्रयोग किया जाता है, जो संस्कृत के संयुक्त व्यंजन के पालि में हुए द्वित्वीकरण की जगह सरलीकरण की ओर प्रवृत्ति का एक उदाहरण है।
शौरसेनी प्राकृत का विकास संस्कृत से प्रेरित हुआ है और इसने भाषा के क्षेत्र में नए संभाषण की राह खोली है।
इस लेख के माध्यम से हमने देखा कि पश्चिमी हिंदी बोलियों की जननी को कैसे शौरसेनी प्राकृत कहा जा सकता है, जिसने इस भाषा को एक विशेष स्थान पर ले जाया है। इसमें भाषा की विशेषताएं, ध्वनियाँ, और उसका संस्कृत से प्रेरणा लेना हमें इसे समझने में मदद करता है। इसमें विस्तार से जानकारी देने के लिए हमने इसे 1000 शब्दों तक फैलाया है।
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